Aagaaz.... nayi kalam se...

Aagaaz.... nayi kalam se...
Kya likhun...???

Thursday, December 1, 2011

सिलसिले...

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते

शिकवा-ए-जुल्मते-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते

जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते-गाते जाते

उसकी वो जाने, उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ से तो निभाते जाते

-अहमद फ़राज़...

Tuesday, November 15, 2011

आज़ादी आधी रात को


आख़िरकार हमने ये किताब पढ़ ही डाली.. पिछले करीबन 6-7 महीनों से हम इस किताब को अपने पास रखकर इसे पढ़ने का असफल प्रयास कर रहें थे... दिल्ली आने के बाद अचानक इसे पढ़ने की तलब बढ़ गयी... फिर तो जैसे जैसे पढ़ते गये.. और पढ़ने का जूनून सा लगने लगा... रात में सोने के समय भी लगता था कि एक पन्ना और.... इसकी एक वजह यह है कि हमें हमेशा से देश की आज़ादी से जुड़ी घटनाएं आकर्षित करती रही है... चाहे वो कोई देशभक्ति की फिल्म रही हो या कुछ पंक्तियाँ हो... जब शुरुआत में पढ़ना शुरू किया तो उसमें ब्रिटेन और वहां से जुड़ी कुछ बातें लिखी थी... शायद इसीलिए मन ज्यादा जुड़ाव महसूस नहीं कर पा रहा था... लेकिन आगे पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि वो पृष्ठभूमि देना ज़रूरी था.... और आगे पढ़ने के बाद हमने फिर से पिछले पन्नों को पलटा और ध्यान से पढ़ा... किताब के लेखकों डोमिनिक लापियर और लैरी कॉलिन्स के साथ साथ हम तेजपाल सिंह धामा के बहुत शुक्रगुज़ार है जिन्होंने इसका हिंदी में सम्पादन किया क्यूंकि अगर ये अंग्रजी में होती और हम पढ़ते भी तो शायद आधे से भी कम आनंद उठा पाते.. खैर किताब बड़े ही रोचक अंदाज़ में लिखी गयी है ... चाहे वो.. ब्रिटेन का भारत को आज़ादी देने का फैसला हो या हमारे देश के राजा- महाराजाओं के काम, गाँधी, जिन्ना, नेहरु, पटेल, वीर सावरकर, माउंटबेटन, गोडसे आदि के किरदार हो या उस समय की राजनीति, सभी ने हमें बांधे रखा... खासकर विभाजन के समय
होने वाले भयानक रक्तपात को पढ़ते समय मेरे रोंगटे खड़े हो गये... हम तो बचपन से कहानियों में, फिल्मों में और भी कई जगहों से उस समय के हालात को सुनते आ रहें है लेकिन अगर कोई इन सब से बिलकुल अनजान होकर इसे पढ़े तो वाकई उसके लिए ये दिल दहला देने वाला लेख बन जायेगा...
विभाजन की वो पीड़ा हम में से कोई समझ भी नहीं सकता क्यूंकि वो एक भयानक स्वपन से भी भयानक था... इसके बाद गांधी जी की हत्या का पूरा विवरण भी किताब से नज़रे हटने नहीं देता... इन सब के बाद ये बताना ज़रूरी है कि इस किताब को पढ़कर मेरे बहुत सारे भ्रम टूट गए.. सबसे खास बात ये कि जब ये किताब अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंची तो इस ख़ुशी के साथ कि हमने इसे पढ़ लिया है... एक अजीब सी बैचेनी हुई.. लगा कि हम एक दुनिया से बाहर आ रहें है... उसे और देखना चाहते है, वहां के लोगों से और जुड़ना चाहते है... लेकिन ऐसा हुआ नहीं... मेरी माने तो इस किताब का अगर पार्ट २ आ जाए तो हम उसे भी इतनी ही रोचकता से पढेंगें.... चलते- चलते मेरी अपने दोस्तों से यही गुज़ारिश है कि एक मर्तबा इसे ज़रूर पढ़ें... हमें पूरा विश्वास है कि ये किताब आपको भी उतनी ही अपनी लगेगी जितनी हमें लगी....
शुक्रिया...
-शुभी चंचल

Sunday, November 13, 2011

यात्रा और यात्री...

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता

पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है

एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक पाता

शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था

घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा

थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था

पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते

शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए

किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते

और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना

एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन

मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना

एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है

यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई

साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है

सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

- हरिवंश राय बच्चन

Saturday, September 3, 2011

एक माह: हज़ारों पल





आज देश की राजधानी में आए लगभग एक महीना हो गया साथ ही आई आई एम सी का भी. इस एक महीने में हमनें हजारों पलों को जिया है और सिर्फ जिया ही नहीं बल्कि कई एहसासों को महसूस किया है.... हम ये तो नहीं कहेंगे कि इन हजारों पलों ने हमें पूरी तरह बदल दिया है लेकिन अपने अन्दर हुए कई बदलाव को हम नकार भी नहीं पा रहें है........ आज से कुछ महीने पहले हम इस समय की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, वैसे तो हम अपने जीवन के अगले पल की होनी को भी नहीं जानते लेकिन फिर भी हर इंसान की कुछ कल्पनाएं होती ही हैं. मेरा मानना है कि मेरे प्रयास के साथ साथ (जिसमें मेरे फॉर्म भरने के साथ साथ परीक्षा देने जाना भी सम्मिलित है)उस वक़्त का भी हाथ है जो शायद उस वक़्त मेरे साथ था.
यहाँ आना (रेल का अकेला सफ़र भी), हॉस्टल लाइफ देखना, अलग अलग जगहों के लोगों, भाषियों से मिलना, कुछ नए दोस्तों का साथ मेरे लिए काफी रोचक रहा है.... हमें आज ये कहने में ज़रा भी हिचक नही होती कि अपने शहर में रहते हुए भी जिस आत्मविश्वास की कमी हमने महसूस की (जिसमें से एक अंग्रेजी भाषा में महारत न होना भी था) वो यहाँ नही होती ... ये बात तब ध्यान आई जब यहाँ कुछ लोगों ने मेरे आत्मविश्वास कि दाद दी(जिस पर हमें शक है).. यहाँ हम अक्सर लोगों से कहते है कि हमें अच्छी अंग्रेजी नहीं आती... और ये कहते हुए हमें ख़ुशी नहीं तो दुःख भी नहीं होता....
जहाँ तक बात करे बदलाव कि तो पिछले चार सालों में कई बदलाव महसूस हुए लेकिन यहाँ की कुछ चीजों पर वाकई अचम्भा होता है जैसे पढ़ने की अजीब रूचि उत्पन्न हो रही है.... जो नींद से भी ज्यादा अच्छी लगने लगी है (ये अचम्भा वो लोग महसूस कर सकेंगे जो मेरी नींदप्रेम को जानते है) , पढ़ने से मेरा मतलब सिर्फ पाठ्यक्रम की पढाई से नहीं हैं. इसका एक कारण जो हमें समझ आता है वो आस- पास का माहौल है या शायद बाकियों से कम जानने की शर्मिंदगी... लेकिन ये बातें तो पहले भी थी पर मजबूरी में पढ़ना और पढ़ने में मज़ा आना दो अलग अलग बातें है... और सच है कि हमें अब पढ़ने में मज़ा आने लगा है....
कुछ अजीब स्वभाव और कुछ असाधारण घटनाएं(जो शायद उनके लिए साधारण हो) इन सब से भी बहुत कुछ सीख रहें हैं...
कितनी ही ऐसी सोच जो हमारे अन्दर अपना पक्का मकान बना चुकी थी शायद अब उनकी नींव हिल चुकी है... कभी कभी बेहद व्यस्त दिन के आखिर में भी खुद को इतना तरो-ताज़ा महसूस करते है जितना किसी छुट्टी के बाद....
कई मिथ्या, कई भ्रम टूटें है और कई नए विचारों ने जन्म लिया है....
अभी तक का ये सफ़र तो मज़ेदार रहा ...आशा है कि आगे भी ये ताज़गी बरक़रार रहेगी... हमनें "हमनें" शब्द का उपयोग जानबूझ कर किया है क्यूंकि यहाँ कुछ लोगों को इस पर शर्मिंदगी होती है... खैर आज क्लास में बैठे बैठे अचानक कुछ लोगों के लिए मन श्रद्धा से झुक गया जिसमें वो सभी लोग शामिल है जिनकी वजह से आज हम यहाँ है और इस नए जीवन का लुत्फ़ उठा रहें है .... वैसे तो ये सब पहले ही लिखना चाहते थे लेकिन आज रुकना नामुमकिन सा हो गया... अभी के लिए इतना ही.. आगे और भी बातें होगी...
ये लेख खासकर उन सभी दोस्तों के लिए है जो मेरी तरह इस अनजाने शहर में आए है, अपनों को छोड़कर, अपना घर छोड़कर.....

Friday, August 26, 2011

असली सूरत

हमारे देश के कई नेताओं की सूरत छुपी ही है......

जिनके जुल्म से दुखी है जनता हर बस्ती हर गाँव में,
दया धरम की बात करें वो, बैठ के सजी सभाओं में,
दान का चर्चा घर-घर पहुंचे, लूट की दौलत छुपी रहे,
नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।

देखें इन नकली चेहरों की कब तक जय-जयकार चले,
उजले कपड़ों की तह में, कब तक काला संसार चले,
कब तक लोगों की नजरों से, छुपी हकीकत चुपी रहे,
नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे।

Friday, April 22, 2011

आर-पार...


ये कविता मेरी एक मित्र को समर्पित है..... जिनकी ज़िन्दगी में कुछ ऐसे मोड़ आये और उनकी बातों को सुनकर मुझे लगा कि वो कुछ ऐसा ही कहना चाह रही है.....

जला कर राख कर दो मेरी मोहब्बत को,
या और तेज़ हवाएं दे दो,
वरना धुंआ बढ़ता रहेगा,
कहानियां बदलती रहेगी,

कह दो तुम नहीं हो मेरे,
या खुद को मेरे नाम कर दो,
तुम आओ याद मुझको कभी,
या अपनी यादों में मेरा नाम दे दो,

कह दो भूल जाऊं तुम्हे,
या मिलने का पैगाम दे दो,
आसूं दे दो जुदाई का,
या मिलने की मुस्कान दे दो,

तोड़ दो हर ख्वाब हर उम्मीद मेरी,
या मेरा हर सपना आबाद कर दो,
लगता हो अगर नामुमकिन ये सब,
दे दो ज़हर बस ये काम कर दो.....

-शुभी चंचल

Monday, March 21, 2011

हँसते- हँसते .....


हँसते- हँसते दिल ये मेरा ज़ोर से रोने लगता है,
पाया था जिसे अभी अभी वो यूँ-ही खोने लगता है।

वो
कौन सी लकीर है हाथों में,
वो कौन सा तारा नभ में है,
किस्मत हमसे या हम किस्मत से,
कभी भ्रम सा होने लगता है।

सही हर जगह सही नहीं,
और गलत कहीं पर सही भी है,
फिर सही है क्या और गलत है क्या,
मन सवाल को ढोने लगता है।

जो मिला था उसको खो ही दिया,
जो मिला नहीं वो सोच में है,
वो टूटा तो फिर जुड़ा नहीं,
मन स्वप्न संजोने लगता है.....

- शुभी चंचल

Sunday, March 13, 2011

क्यूँ.....?


कुछ सवाल है जो कई दिनों से मेरे मन में घूम रहे है.... जिनका हल मैं ढूढ़ नहीं पा रही हूँ... आज वो सवाल आप सब के साथ बाँटने जा रही हूँ... कि-
- एक तरफ १ बच्चा बड़े, महंगे स्कूल और ट्यूशन में पढ़ने जाता है और दूसरी तरफ किसी बच्चे को सरकारी स्कूल भी नहीं मिलता....क्यूँ?

- एक तरफ स्वर्गीय लोगों की जन्मतिथि पर लाखों- करोड़ों खर्च कर दिए जाते है तो दूसरी तरफ एक मासूम बच्चा अपना जन्मदिवस भी नहीं जानता....क्यूँ?

- एक तरफ एक इन्सान के पास कई मकान, होटल, जमीन जायदाद है तो दूसरी तरफ कुछ लोगों के पास घर के नाम पर फुटपाथ और छत के नाम पर आसमान के सिवा कुछ नहीं... क्यूँ?

-एक तरफ मंत्री के रिश्तेदारों को बिना किसी योग्यता के बड़े से बड़ा पद मिल जाता है तो दूसरी तरफ एक योग्य पात्र दर- दर भटकता है...क्यूँ?

- मुख्यमंत्री के निकलने के लिए ४ घंटे पहले से पूरा यातायात मार्ग बंद कर दिया जाता है भले ही उस रास्ते में अस्पताल जाने के इंतज़ार में कितने ही मरीज़ अपना दम तोड़ दे...क्यूँ?

- एक तरफ "कसाब" जैसे आतंकवादी को करोड़ों रूपए खर्च करके ऐसी जेल में रखा जाता है जिसमे बम का भी कोई असर न हो तो दूसरी तरफ देश के निर्दोष, करदाता नागरिक को ये विश्वास नहीं है की वो शाम को सुरक्षित घर लौटेगा या नहीं ....क्यूँ?

- भ्रष्टाचारी मंत्रियो की सुरक्षा के लिए उनकी गाड़ी के आगे पीछे कितनी और गाड़िया दोड़ती है और एक आम आदमी यूँ ही डरते हुए अपनी जिन्दगी काट देता है...क्यूँ?

- एक तरफ किसी नेता को एक छीक आ जाये तो उसके लिए एम्बुलेंस, आई सी यू सब तैयार हो जाते है तो दूसरी तरफ बलात्कार की शिकार एक निर्दोष लड़की चार दिन तक एक- एक साँस के लिए लड़ती -लड़ती मर जाती है लेकिन उसे ढंग से एक डॉक्टर देखता भी नहीं है....क्यूँ?

ऐसे न जाने कितने क्यूँ हमारे देश के मानचित्र पर गड़े हुए है... अगर इनमे से एक भी क्यूँ को हम हटा पाए तो शायद दुनिया में आना सफल हो जाये....

हम भारतवासी अपने पड़ोसी देशों को भला- बुरा कहते है उनसे लड़ने के लिए एक-जुट हो जाते है भारत के अन्दर छिपे दुश्मनों से कब लड़ेगे.... कब?

क्या आपके पास है जवाब?????


- शुभी चंचल

Tuesday, March 8, 2011

नारी दिवस पर..


दुनिया की खूबसूरती का हिस्सा है ये नारी,
फिर क्यूँ इस खूबसूरती को मिटाना है जारी,

हक नहीं कोख में आने का,
माँ का स्पर्श पाने का,
चाहते है कमाऊ पूत,
और बहाना है वंश चलाने का,

दुनिया की खूबसूरती का हिस्सा है ये नारी,
फिर क्यूँ इस खूबसूरती को मिटाना है जारी.......

- शुभी चंचल

Saturday, March 5, 2011

जवाब


अगर हम न होते तो क्या होता.....? -
हम न होते तो जो लोग आज हमसे खफा है या हमारी वजह से दुखी है वो दुखी न होते.....
और जो हमसे खुश है, वो खुश भी न होते....
जीवन के इतने सारे रंगों से हम अनजान रह जाते.....
कभी कभी सुकून देने वाले आसुओं से न मिल पाते....
बचपन की छोटी छोटी खुशियों से भी महरूम रहते....
और आज सबको इस विषय में लिखते देखकर मेरा मन न होता लिखने को...
- शुभी चंचल

Tuesday, March 1, 2011

बदलते रिश्ते




रिश्ते............इन रिश्तों के बंधन से कोई नहीं बच पाता या कह सकते है इस रेशम के जाल से कोई निकलना ही नहीं चाहता। दुनिया में आते ही तमाम रिश्ते घेर लेते है। बड़े होते-होते कई रिश्ते जुड़ते चले जाते है, कई बिछड़ते भी है। लेकिन "बदलाव" हर रिश्ते में आते ही है, कभी अच्छे और कभी बुरे भी..........ये बदलाव हम खुद नहीं लाते और कभी-कभी चाहते भी नहीं है पर अचानक हमें महसूस होता है कि ये रिश्ता बदल गया। फिर अगर बदलाव अच्छा है तो एक मुस्कुराहट से दिल तसल्ली करता है और अगर बुरा है तो एक दूसरे पर आरोप लगते है कि ”आप बदल गये”। असल में बदलते तो रिश्ते है......क्यूं ?
रिश्ते की भी कई नस्लें होती है। कुछ रिश्ते हमें दुनिया में आते ही विरासत में मिल जाते हैं, तो कुछ ज़िंदगी के सफर में....... इसी बीच बदलाव भी अपना खेल दिखाता रहता है। जब रिश्तों में बुरा बदलाव महसूस होता है तो अजीब सी हलचल महसूस होती है, दिल उस बदलाव को स्वीकार नहीं कर पाता......पर सच्चाई तो बदली नहीं जा सकती। अब ज़रा अपने आस-पास के बदलते रिश्ते पर नज़र डालिए..........अगर आप बुआ और मौसी के रिश्ते से इत्तेफ़ाक रखते हैं तो ज़रा सोचिए कभी आप की बुआ आपके पापा या चाचा के साथ वैसे ही खेला और झगड़ा करती होंगी जैसे कुछ दिन पहले या अब भी आप अपने भाई-बहनों से झगड़ते होंगें। वैसा ही कुछ आपके मौसी या मामा के बीच होता होगा......और अब, अब कभी-कभी और बड़ी औपचारिकता से मिलना......। मुझे यहां पर एक किस्सा याद आ रहा है- जब मुझे इस रेशमी जाल (रिश्ते) की समझ नहीं थी तब मेरी बड़ी दीदी की शादी हुई, मुझे समझ नहीं आया कि दी अब हमारे साथ क्यूं नहीं रहती.....? खैर कुछ दिनों बाद दी जब घर आई तब हम भाई- बहनों में लड़ाई हुई...... माँ सुलझाने आई और बोली ”अब दीदी की शादी हो गई है, ऐसे मत लड़ा करो” तब ये बात पल्ले नहीं पड़ी, लगा कि वो दी की साइड ले रहीं है, लेकिन अब समझ आता है कि वो एक सच था जो ज़िंदगी का हिस्सा बन गया और महसूस बाद में हुआ।





ऐसे
ही हमारे हर रिश्ते में बदलाव आता है और महसूस बाद में होता है। कुछ रिश्ते ऐसे हो जाते है, जैसे हम गुलाब के फूल को अपनी किताब में रख लेते है और कभी अचानक किताब पलटते वक़्त वो फूल नज़र आने पर हस देते है, जो मुरझाने के बाद भी अपनी महक नहीं छोड़ते। कुछ ऐसे भी हो जाते है जिनका ज़िक्र भी करना हमें पसंद नहीं आता।
हाँ ये रेशमी जाल हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगें लेकिन हम तो ये ही कहेंगें कोशिश करिए कि हर रिश्ता गुलाब के फूल जैसा ही रहे.......खिला न सही मुरझाया ही सही पर महक तो रहे।
-शुभी चंचल