Aagaaz.... nayi kalam se...

Aagaaz.... nayi kalam se...
Kya likhun...???

Thursday, March 22, 2012

पिछले छह महीनों में...


पिछले छह महीनों में,
देखा मैंने प्यार, दुलार और एक भार,
प्यार, दुलार जो दिया मुझे,
पर्वत, हवाओं और पत्तियों के जंगल ने,
उगते सूरज की गर्माहट ने,
बढ़ते चाँद की ठंडक ने,
हर पल एक साथ, एक हाथ दोस्ती का,
सिकुड़े हुए कमरे की चार दीवारी ने,
खिड़की पर टंगे और हिलते परदों ने,
भार, भार था बस एक एहसास का,
सिर्फ जिसे लायी थी शहर में,
उम्मीद को पूरा कर पाने का भार,
सपनों को हकीक़त में बदलने का भार,
आज नही है उस भार का एहसास,
मगर है अब एक और ही एहसास,
उस प्यार और दुलार के दूर जाने का,
खुद में घुल चुके है ये पर्वत, हवाएं और जंगल,
वो हाथ दोस्ती का, दीवारे और हिलते हुए परदें,
पिछले छह महीनों में,
पाया मैंने प्यार, दुलार और एक भार...
-शुभी चंचल

Wednesday, March 21, 2012

इम्तियाज़ की नायिका...2


लव आजकल

लव आजकल में इम्तियाज़ अली ने दो पीढ़ी के युवाओं को प्रेम के एक ही स्वरूप में दिखाया है। फर्क सिर्फ इतना है कि नई पीढ़ी इस प्रेम को देर में समझती है या मानती है। फिल्म की नायिका एक आत्मनिर्भर लड़की है जो देश की पुरानी और बेरंगी हो चुकी इमारतों में रंग भरना चाहती है। दोनों पीढि़यों में प्रेम तो एक जैसा ही है मगर दोनों की नायिकाओं में अंतर है। इम्तियाज़ अली ने अपनी फिल्मों में जो नया प्रयोग किया है वो नई पीढ़ी की नायिका में नज़र आता है। नायिका नई सोच की है, उसका दिल जो कहता है, वो सब कुछ करती है। सामाजिक बंदिशों से कोसों दूर है। अपने जीवन के छोटे-बड़े फैसले खुद करती है। चाहे वो किसी अजनबी से दोस्ती करना हो या अपनी नानी की इच्छा के विरूद्ध जाकर अपना करियर चुनना हो। अंदर से वो भले ही आम लड़की है मगर बाहर से वो उन सब से अलग दिखती है। स्वाभाविक भावनाओं से अलग रहने की कोशिश करती हुई नज़र आती है और उन भावनाओं को छिपाने का भरसक प्रयास करती है। नायिका और नायक वास्तविकता को समझते हुए, पूरी योजना के साथ अलग होते हैं और इस समझदारी के लिए एक दूसरे की पीठ थपथपाते हैं। अलग होने के बाद भी अंदर से एक दूसरे से जुड़े रहते हैं लेकिन खुद को अलग साबित करने के लिए एक दूसरे को अपनी भावनाएं नहीं बताते। अचानक दूसरे लड़के से शादी का नाम आते ही नायिका की असहजता साफ नज़र आने लगती है। वहीं पर इम्तियाज़ अली अपने नए प्रयोग में वास्तविकता का छिड़काव करते हैं। नई सोच की नई नायिका एक बार फिर भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण संस्था- विवाह, की रस्मों को लेकर विश्वास से भरपूर दिखती है और उनकी परवाह भी करती है लेकिन फिर जब उसे अपनी जिंदगी नायक के बगैर सोच के सिहरन महसूस होती है तब वो इम्तियाज़ अली की नई सोच की नायिका बनकर उभरती है और अंत सुखद लगता है। इम्तियाज़ अली की यह फिल्म भारतीय समाज में हो रहे धीरे-धीरे बदलाव की अच्छी तस्वीर पेश करती है।

-शुभी चंचल

मेरी सच्चाई...



दिख रही है मुझे मेरी सच्चाई,
मेरी जिंदगी की तरह खाली है मेरा कमरा,
आवाज़ दीवारों से टकराकर आ रही है मेरे पास,
डर नहीं कि कोई समझ लेगा आह मेरी,
ग़म नहीं कि कोई पोछ कर आंसू मेरा कहेगा कि
‘सब ठीक है‘
बल्ब सिर्फ मुझे देखेगा
और हवा पंखे की सिर्फ मेरे बाल उड़ाएगी,
ये डिबिया गुम नहीं होगी कभी,
न ये गिलास कोई उल्टा रखेगा,
कुछ नहीं बिगड़ेगा, कभी नहीं,
मुझे खुश होना चाहिए मगर,
दिख रही है मुझे मेरी सच्चाई।।
-शुभी चंचल

धीरे-धीरे...


जिंदगी रात नहीं जो गुज़र जाएगी,
एक दिन है जो ढल रहा है धीरे-धीरे।

अक्सर मिलकर लोग बिछड़ जाते है,
फिर किसी मोड़ पर नज़र आते है,
याद आती है एक झलक में बीती बातें सारी,
एक चक्र है जो चल रहा है धीरे-धीरे,

रखते है कई चाह, कुछ अलग कर जाने की,
किसी को मिलती है मंजिल, किसी को कसक है न पाने की,
कोई तो आग रहती है हर दिल में,
एक शोला है, जो जल रहा है धीरे-धीरे,

बाद मुद्दतों के नज़र आती है कमी कोई,
आंसू नहीं गिरते मगर रहती है नमी कोई,
जब परदा उठता है सच्चाई से तो मालूम पड़ता है,
ये दोस्त के खोल में छलिया है जो छल रहा है धीरे-धीरे।।

-शुभी चंचल

Tuesday, March 6, 2012

इम्तियाज़ की नायिका...

जब वी मेट.....
जब वी मेट की शुरूआत एक डूब चुके कारोबार के मालिक की बिखरी हुई जिंदगी से होती है। शुरूआत में ही इम्तियाज़ अली समाज की एक रूढि़वादी सोच की छोटी सी झलक पेश कर देते है। आदित्य (शाहिद कपूर) अपनी मां से बेइंतहा नफरत करता है। इस नफरत की वजह है उसकी मां का दूसरे पुरुष से संबंध। हमारे समाज की ये सोच कि एक शादी शुरू औरत जिसका जवान बेटा है वो कैसे किसी और पुरुष से प्रेम कर सकती है? यही सवाल आदित्य को अपनी मां से नफरत करवाता है। इसके बाद फिल्म की नायिका आती है जो आज तक की तथाकथित सुसंस्कृत, बेचारी और कोमल हृदया लड़की से बिल्कुल उलट नज़र आती है। गीत, पंजाब की एक लड़की जो मुंबई में पढ़ाई खत्म करने के बाद अकेली घर वापस जा रही है। इतना ही नहीं वो ट्रेन छूटने से ठीक पहले स्टेशन पहंुचती है और लगभग दौड़ती हुई ट्रेन में चढ़ती है। बिना किसी हिचकिचाहट, डर और असहजता के वो अजनबियों से बात करती है। हमारे समाज में जहां आज भी लड़कियों का अकेले सफर करना, अजनबियों से बात करना, ज्यादा बोलना, मजाक करना सभ्यता के दायरे से बाहर है, वहां गीत एक तेज तर्रार, बात-बात पर ठहाके लगाने वाली, बेहद सकारात्मक और दूसरों की मदद करने वाली लड़की है। यहां तक तो ठीक है मगर इसके बाद इम्तियाज़ अली की कल्पना सामने आने लगती है। आदित्य के एक स्टेशन पर उतर जाने पर गीत भी अपना सामान छोड़कर उसके पीछे ट्रेन से उतर जाती है। अब हां सवाल खड़ा होता है कि क्या हमारे समाज में कोई भी लड़की ऐसा कर सकती है? खैर उसके बाद दोनों की ट्रेन छूट जाती है और गीत को गुस्सा आता है और वो अपना परिचय खुद देती है- ‘छोड़ने वाली नहीं हूं, कोई आउट मत रखना, सिक्खनी हूं मैं भंटिडा की‘। ये संवाद नायिका के आत्मविश्वास को पूरी तरह दर्शकों के सामने लाने के लिए काफी था। किसी तरह दूसरे स्टेशन पर पहुंचना और फिर वहां पानी बेचने वाले से फालतू की बहस से फिर एक बार ट्रेन का छूट जाना, दुकानदार के छेड़ने पर उसे सबक दिखाना, इतना सब कुछ होने के बाद भी डर का नामोनिशान नहीं। इसके बाद स्टेशन मास्टर की मुफ्त की सलाह पर उसे मुंहतोड़ जवाब देना और आखिरकार एक आदमी से बचते हुए फिर नायक के पास पहुंचना। रात में एक होटल पर पहुंचकर, होटल में मैनेजर के रूप में समाज के मज़ाक को न समझते हुए एक बदनाम होटल में रुककर नायक की समस्याओं को सुलझाती है और लगभग पूरी तरह से टूट चुके नायक को आखिरकार मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है। कहीं न कहीं एक संदेह दर्शाती है मगर नायक पर विष्वास कर लेती है। बातों ही बातों में एक डायलॉग- मैं अपनी फेवरिट हूं, आम लड़कियों के लिए बहुत कुछ कह जाता है। बीच-बीच में हौसला बढ़ाने वाली बातें करती है- हमें वहीं मिलता है जो हम एक्चुअली में चाहते हैं। जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने वाली लड़की नज़र आती है। जब उसे आदित्य की असली पहचान मिलती है तब वो उसे और समझाती है। उसकी मां भी एक औरत है न कि सिर्फ एक बीवी और उसकी मां है। आखिरकार नायक भी इस बात को समझता है। उसके बाद उसका घर पहुंचना, अपने रिश्ते की बात पर नायक की राय लेना, उसके साथ भागना इन सब में नायिका के चरित्र का बेबाकीपन साफ नज़र आता है।
यहां तक इम्तियाज़ अली ने एक अलग तरह की नायिका पेश की है मगर इसके बाद गीत बदल जाती है। जब उसका प्रेमी उसे छोड़ देता है तो गीत भी उन तमाम आम लड़की जैसी बिखर जाती है जैसे हमें और फिल्मों में देखने को मिलती है। वो अपना खुद का चरित्र भूल जाती है और एक बार फिर इस नायिका को नायक ही संभालने आ जाता है। अंततः गीत फिर अपने चरित्र में आती है।
इस फिल्म में इम्तियाज़ अली ने बहुत हद तक नारी का एक अलग चेहरा पेश किया है जो समाज को प्रभावित कर सकता है मगर कहीं न कहीं समाज से प्रभावित भी नज़र आता है।