Aagaaz.... nayi kalam se...

Aagaaz.... nayi kalam se...
Kya likhun...???

Sunday, January 22, 2012

न जाने किसके लिए...


मां को याद आता होगा अक्सर,

कि, मैं इस वक्त तक भूखा हो जाता था,

कौर वो भी न तोड़ पाती होगी,

जब रसोई में वो छोटी थाली दिखती होगी,

अक्सर मेरी पुरानी कमीज में ढ़ूढती होगी मेरा बचपन,

जो अब भी उसने लोहे वाले पुराने बक्से में रखी है,

बगल वाला भोलू जब भी अपनी मां को पुकारता होगा,

वो भी एक बार मुड़ तो जाती होगी,

दुआ तो देती होगी कि बन जाऊं अफसर मैं,

मगर घर लौटने का रस्ता भी तकती होगी,

कहां अलग हूं मैं भी मां से, मगर कह नहीं सकता,

बस उलझा हूं झूठे कागज़ों को जोड़ने में,

न जाने किसके लिए...

-शुभी चंचल

Monday, January 16, 2012

चुनाव: ज़िन्दगी या पार्टी का...


लगभग चार महीने पहले शीलदास के इकलौते जवान बेटे की मौत हो गयी, पटरंगा वाले कालीचरण के खेतों में पिछली गर्मी में आग लगी थी, कविता तो पिछले आठ महीनों से खुद को समेटने में लगी है जबसे उसका पति उसे इस दुनिया में अकेला, बिखरता छोड़ गया.... नहीं ये किसी एक परिवार की कहानी नही है, ये उत्तर प्रदेश के अलग अलग गाँव के अलग अलग परिवारों की दशा है जहाँ जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले है। खैर सभी पार्टियाँ कुर्सी की जद्दोजहद में बहुत व्यस्त है। किसी को अपनी मूर्तियाँ ढ़कने का गुस्सा है तो कोई अपनी पार्टी में शामिल हुए दागदार लोगों को सही साबित करने में लगा है. चुनाव आयोग के तय किये निर्देशों को कैसे तोड़ा मरोड़ा जाए ये भी एक बड़ा काम है. अपने किये कर्मों को बोरी में बंद करके दूसरों के कामों की गठरी की गाठ खोलना भी कोई आसान काम नही. अब इतने बड़े कामों को करने वालों को शीलदास, कालीचरण और कविता के लिए समय कहाँ है... और वो समय निकालकर करे भी तो क्या॥ ये सिर्फ इन तीनों का रोना होता तो कोई जाकर उनके यहाँ खाना खा आता और कोई उन्हें एक लाख का मुआवज़ा भी दे देता लेकिन ये तो कई गाँव के कई घरों की कहानी है. करे भी तो करे क्या?एक सवाल है जो बार बार मन में आ रहा है कि कालीचरण के भूखे बच्चों के पेट की आग क्या नयी सरकार बुझा पायेगी? शीलदास किस मन से जायेगा किसी पार्टी का चुनाव करने? और कविता उसकी तो सारी उम्र खडी है सामने॥ कई चुनाव करने है उसे खुद के लिए...
इन जैसी जिंदगियों के लिए क्या चुनना ज़रूरी है ये भी एक सवाल है.. अगर ये भी उन आम आदमी में आते है जो लोकतान्त्रिक समाज में खुद अपनी सरकार चुनते है तो किस मनोदशा से ये चुनाव में भाग लेंगे. लोकतंत्र के लिए चुनाव ज़रूरी है मगर जब इनका ख्याल आता है तो सारा जोश ठंडा हो जाता है. खैर हमें तो चुनना ही होगा किसी 'काने राजा' को...

माँ...


पसीने से भीगा हुआ चेहरा याद आता है,
रोटी को जिद से गोल करती उँगलियाँ,
छौंक के धुंए से छिड़ी हुई खांसी,
दाल में नमक के स्वाद की चिंता,
सर्दियों कि सुबह में माँ से लड़ता कोहरा याद आता है.

सुबह की दौड़ती भागती ज़िन्दगी,
छोटो की फरमाइशें, औरों की उम्मीद,
छोटे बड़े मोजों की तलाश,
बुखार में तपती जान पर दुआओं का पहरा याद आता है.
--शुभी चंचल

ख़्याल...

आँख बंद करते ही एक ख़्याल मेरे मन को भेदता है,
एक हाथ, उसमें बन्दूक से निकली गोली,
मेरे किसी 'अपने' की तरफ बढ़ती है,
में आगे बढ़कर उस गोली को खुद में समेट लेती हूँ,
लाल रंग की फुहार से भीगकर,
डगमगा गई उसी जगह मैं,
आवाज़े सुनने में कम,
और नज़ारे फीके पड़ने लगे,
वो हाथ भी धुंधला जाता है,
मेरी आँखें मेरे 'अपने' पर है,
मगर वो अब भी अनजान है, मेरा 'अपना'
कि वो कितना 'अपना' है मेरे लिए,
आँख बंद करते ही एक ख़्याल मेरे मन को भेदता है।

--शुभी चंचल