Aagaaz.... nayi kalam se...

Aagaaz.... nayi kalam se...
Kya likhun...???

Saturday, March 18, 2017

नहीं जाता...

मेरे हिस्से की ज़िन्दगी अब कोई और जी ले
बची सांसों का बोझ उठाया नहीं जाता,
आवाज़ें हैं बहुत, कराहता बचपन है
इस शोर में अब और गाया नहीं जाता,
आंखों में नमी है, चीखें हैं, सिसकियां हैं
अब दूसरों को और हंसाया नहीं जाता...
-शुभी चंचल

Friday, March 17, 2017

अकेली रातों में...

अकेली रातों में...
कंधे से हटा कम्बल खुद ऊपर करना होता है
उम्र से बड़े होने के बाद अभी खुद में बड़ा होना बचा है
अकेली रातों में...
परछाई को भूत नहीं परछाई ही खुद समझ लेना होता है
सपनों से डर कर हक़ीक़त में खुद को सुलाना होता है
न ओढ़ने की ज़िद भी और आधा ओढ़ने का फैसला भी खुद का होता है
अकेली रातों में...
सुबह उठने की दलीलें, कहीं जाने की तारीखें खुद ही तय करनी होती हैं
अलार्म का टाइम सेट करके खुद ही उसे बंद करना होता है...
अकेली रातों में.....

-शुभी चंचल


Sunday, January 1, 2017

कोरियर

दिवाकर- ... तो कैसी लगी कविता?
दिशा- बहुत गहरी.. हमेशा की तरह।
दिवाकर मुस्करा देता है।
दिशा- तुम ये सब सोच कैसे लेते हो? मतलब मैं जब भी लिखने की कोशिश करती हूं... ऐसा बिल्कुल नहीं सोच पाती।
दिवाकर- सोचता कहां हूं... खुद आ जाता है मन में।
दिशा- वही तो। यू आर वेरी टैलेंटेड... आई मस्ट से।
दिवाकर- नहीं टैलेंट-वैलेंट कुछ नहीं। इंस्पिरेशन है... प्रेरणा।
दिशा- क्या प्रेरणा?
दिवाकर उसे देखता है फिर सिर नीचे करके कहता है- तुम नहीं समझोगी।
दिशा पेड़ से एक पत्ती तोड़ लेती है... उसे घुमाते हुए कहती है- तुम समझाओ तो सही।
दिवाकर- पत्ती तोड़ना बुरी बात है। पेड़ को बुरा लगता होगा।
दिशा- ओफ्फो। अच्छा सुनो अब मैं जा रही हूं। प्रेरणा के बारे में कब बताओगे?
दिवाकर मुस्कराते हुए- जल्द ही।
दिशा- ओके देन बाय।
दिवाकर- कल आओगी न?
दिशा- हां पर थोड़ी देर से... मार्केट जाना है, बड्डे की शॉपिंग करनी है। मेरा गिफ्ट याद है न? लाना मत भूलना...
दिवाकर अपने हाथों से टेक लगाकर आराम से बैठ जाता है और कहता है- उसी दिन तुम्हें प्रेरणा के बारे में बता दूंगा... ये गिफ्ट ठीक रहेगा न?
दिशा- खाली हाथ नहीं, कुछ लेकर आना।
दिवाकर- ओके, ध्यान रखना अपना।
दिशा- हम्म, बाय।
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रोज़ की मुलाक़ात... कुछ कहा-अनकहा, दिवाकर की कविताएं... दिशा के सवाल।
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तीन दिसम्बर, दिशा का बड्डे।

दिवाकर नीले रंग की शर्ट पहनता है। नीला रंग दिशा का फेवरेट है। उसे कोई गिफ्ट समझ नहीं आ रहा था। उसने चॉकलेट का पैकेट खरीद लिया और अपनी सबसे पसंदीदा कविता रंगीन कागज़ में उतार दी।
कागज़ पर सबसे ऊपर लिखा था- तुम्हारी आंख का काजल।
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उस दिन दिशा अकेले नहीं आयी। उसकी एक दोस्त भी साथ थी।
दिशा ने भी नीले रंग का टॉप पहन रखा था।
दिवाकर को देखते ही बोली- ओह हो सेम टू सेम।
दिवाकर ने बिना पैकेट पकड़ाए कहा- हैप्पी बड्डे दिशा।
दिशा ने पैकेट देख लिया था, बोली- थैंक्यू।

फिर दिशा ने अपनी दोस्त से मिलवाया-
ये तरन्नुम है, मेरे बचपन की दोस्त... बताया था न तुम्हें... हम लोग रेस्तरां गए थे पार्टी करने।
दिवाकर ने मुस्कराकर हेलो बोला।
तरन्नुम ने भी सिर हिलाया।
फिर उसने दिशा से कहा कि उसे कहीं और भी जाना है।
बाय कहकर वो चली गई।
दिवाकर अपनी उसी पुरानी बेंच पर बैठ गया।
दिशा आज किसी और ही दुनिया में थी।
लंबी सांस लेते हुए धप से बेंच पर बैठ गई।
फिर बोलने लगी- यार आज इत्ता खा लिया, कुछ नहीं छोड़ा। चाउमिन, मंचूरियन, आइसक्रीम और ऊपर से केक भी।
सब दोस्त आ गए थे। मजा आ गया। फिल्म जाने को बोल रहे थे पर मैंने मना कर दिया।
खैर तुम क्या मुस्की मार रहे हो... चलो मेरा गिफ्ट दो।
दिवाकर ने पैकेट पकड़ा दिया।
दिशा ने कहा- वाह.. मेरी फेवरेट चॉकलेट...
अच्छा पोयम भी है।
पढ़कर सुनाओ न।
दिवाकर- नहीं आज तुम खुद पढ़ो।
दिशा- ओके
दिशा कविता पढ़कर मुस्कराती रहती है और दिवाकर एकटक उसे देखता रहता है।
अचानक दिशा को कुछ याद आता है।
वो मुड़कर पूछती है- अरे दिवा, वो प्रेरणा वाली बात। तुमने कहा था न बड्डे पर बताओगे।

दिवाकर- पूरी पढ़ ली कविता? कैसी लगी?
दिशा- बहुत बहुत बहुत अच्छी। प्रेरणा बताओ न प्लीज़।

दिवाकर- तुम सचमुच इत्ती मासूम हो क्या?
दिशा झेपते हुए... प्लीज़ दिवा बोलो न प्रेरणा क्या है तुम्हारी?

दिवाकर- दिवाकर उसे देखता रहता है फिर धीरे से कहता है.... तुम
दिशा शांत हो जाती है जैसे दिवाकर को बोलने की मोहलत दे रही हो।
दिवाकर- दिशा जब हम मिले थे तो तुम मुझे बेपरवाह, ज़िन्दगी को मज़ाक समझने वाली, अपनी ही दुनिया में गुम नज़र आती थी।
मतलब मुझसे बिलकुल अलग।
लेकिन पता नहीं कब तुम्हारा यही नेचर मुझे अच्छा लगने लगा। जैसे ये सब मुझे पूरा करता हो।
दिशा क्या हम उम्र भर साथ नहीं चल सकते।
वैसे तो अभी मैं खुद किसी सैटलमेंट के लिए तैयार नहीं हूं लेकिन तुमसे ये कहना ज़रूरी हो गया था।
तुम्हारी जॉब भी अच्छी चल रही है... अब शायद तुम्हारे घर वाले शादी की बात करें... ऐसे में तुम्हारा ये जानना ज़रूरी है न।
कुछ देर दोनों कुछ नहीं बोलते।
फिर दिवाकर दिशा के हाथ पर अपना हाथ रख देता है... कुछ बोलोगी नहीं?

दिशा गंभीर सी लगती है... वो भी दिवाकर का हाथ पकड़ लेती है..

दिवा तुम बहुत अच्छे हो... तुम सबसे अलग हो। तुम्हारा साथ सपनों के जैसा है... जहां तुम मुझे परियों की तरह रखोगे....
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद दिशा फिर कहती है...
लेकिन दिवा ज़िन्दगी सपना नहीं है.. तुम अपने करियर के बारे में कभी नहीं सोचते। तुमने कभी सोचा है कि कब तक तुम अपने भाई से पैसे लेते रहोगे?
वो हमेशा तो तुम्हारा खर्च नहीं उठा पाएंगे न।
हमारे साथ चलने के लिए हम दोनों का कमाना ज़रूरी होगा।
मेरी सैलरी से पूरा घर नहीं चल सकेगा।
और हां पापा भी कल मज़ाक में कह रहे थे कि एक और बड्डे आ गया तुम्हारा।
शादी का क्या प्लान है..
मैंने हंसकर टाल दिया।
दिवाकर बहुत शांत था।
अचानक बोला- मुझे एक साल का टाइम दो दिशा... मैं जॉब ढूंढ लूंगा... जैसी मैं कर सकूं।

दिशा उसे कुछ देर देखती है और मुस्करा देती है...  ओके माय डिअर... दिया एक साल... और ज़ोर से हंस देती है।
दोनों चॉकलेट खाते हैं फिर दिशा चली जाती है।

दिवाकर वहीं बैठा रहता है...।
घंटों बीत जाते हैं उसे पता नहीं चलता...।

कई दिनों तक दोनों नहीं मिल पाते।
एक दिन दिवाकर दिशा को फ़ोन करके आज ही मिलने को कहता है।

दिशा टाइम से उसी पार्क में पहुंच जाती है जहां दोनों हमेशा मिलते रहे हैं।
दिवाकर पहले से पुरानी बेंच पर बैठा होता... थोड़ी हड़बड़ाहट के साथ... जैसे उसे कहीं जाना हो, कहीं पहुंचना हो।

दिशा- हाय दिवा..
दिवाकर मुस्कराकर- कैसी हो?
दिशा हंसते हुए- बहुत अच्छी.. हूं न?
दिवाकर- हां।
दिशा- क्यों बुलाया दिवा? वो भी अर्जेन्ट...
दिवाकर- यहां कुछ हो नहीं रहा... मुझे लगता है कि मुम्बई में शायद मेरे लायक काम हो।
दिशा- तो अच्छा है न... चले क्यों नहीं जाते मुम्बई?
दिवाकर- तुम्हारे लिए इतना आसान है? मुझे तो अजीब सा महसूस होता है यहां से दूर जाने के नाम पर...
दिशा- इसमें अजीब क्या है दिवा? कितने ही लोग काम के लिए दूसरे शहर जाते हैं। वैसे भी यहां भी तो तुम रेंट पर ही हो।
दिवाकर- तुम्हें मुझसे मिलने का मन नहीं करेगा?
दिशा- तुम किसी और प्लेनेट पर थोड़ी जा रहे हो.. आते-जाते रहना। और जब तुम्हारी जॉब फिक्स हो जाएगी तो मैं भी आउंगी तुमसे मिलने।
दिवाकर उदास बैठा रहता है।
दिशा- अरे मेरे दिवा... तुम बहुत सोचते हो। आगे बढ़ने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा और मुझे पूरा यकीन है तुम्हें तुम्हारे टाइप की जॉब ज़रूर मिल जाएगी।
दिवाकर दिशा को निहारता है।
दिशा- चलो अब स्माइल करो और एक कविता सुनाओ... बहुत दिन हो गए।
दिवाकर उसे दूर जाने की एक कविता सुनाता है।
दिशा ताली बजाती है... वाह जी... क्या सोच है... ओह सॉरी ये तो प्रेरणा है...
फिर हंस देती है।
दिवाकर भी हंस देता है।
दिवाकर- ठीक है फिर, मैं मुम्बई जाता हूं। जल्द से जल्द नौकरी ढूंढ कर तुम्हारे पापा से मिलने आऊंगा। अच्छा ये बताओ कितनी सैलरी होनी चाहिए अच्छे दामाद की...?
दिशा- अरे यार ऐसा कुछ नहीं है। एक अच्छी जॉब होना ज़रूरी है बस.. बाकी मैं संभाल लूंगी पापा को।
दिवाकर- हम्म। ओके.. तुम जाओ... शाम हो रही है। अपना ध्यान रखना।
दिशा- हम्म। यू टू एंड ऑल द बेस्ट। जल्दी आना। बाय।
दिवाकर- हाथ हिला देता है... उसके गले में कुछ गड़ रहा होता है इसलिए वो बोल नहीं पाता।
दिशा के जाने के बाद वो रो पड़ता है... फिर कोई देख न ले इस डर से आँख पोंछ कर उठ जाता है।
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दिवाकर को मुम्बई गए छह महीने हो जाते हैं... इन छह महीनों में वो तीन नौकरियां छोड़ चुका है।
उसने सीरियल में असिस्टेंट राइटर की जॉब इसलिए छोड़ दी क्योंकि उसे सीरियल की कहानी के ट्विस्ट अच्छे नहीं लगे।
फिर उसने 20 हज़ार की नौकरी अपने बॉस के रूड नेचर  की वजह से छोड़ दी।
एक मैगज़ीन की नौकरी इसलिए छोड़ दी क्योंकि वहां के दूसरे कर्मचारी महिला कर्मचारियों पर पीठ पीछे फब्तियां कसते थे और उसके विरोध करने पर उसको भी परेशान करने लगे थे।
फिलहाल अभी दिवाकर नौकरी की तलाश में था।
इस बीच दिशा से बात बहुत कम हो गई थी। दिशा दिन में जॉब करती थी। दिवाकर अक्सर नाईट ड्यूटी करता था। छुट्टी भी अलग-अलग दिन मिलती थी।
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एक दिन दिवाकर ने सोचा दिशा को कुछ भेजा जाए।
उसने दिशा के लिए फैशन स्ट्रीट से एक नीले रंग का टॉप ख़रीदा।
एक कविता रंगीन कागज़ में उतारी और कोरियर कर दिया।
4-5 दिन बाद दिशा का फ़ोन आया।
वो पहले की तरह खिलखिला रही थी... बोली बहुत अच्छा टॉप था दिवा। मेरे ऑफिस में सबने खूब तारीफ की।
कहां से लिया... तुम्हारी पसंद अच्छी है।
दिवाकर थोड़ा उदास था... उसे हर पल दिशा दूर जाती दिखती थी। वो शांति से बस दिशा को सुन रहा था।
दिशा- क्या हुआ मिस्टर? कहां हो?
अच्छा ये सब छोड़ो तुम्हारी जॉब कैसी चल रही है?
दिवाकर- मैंने वो जॉब भी छोड़ दी... बताया था न कलीग्स का मैटर।
दिशा- अरे यार तुम भी न... तुम्हें अपने काम से काम रखना था। क्यों दूसरों के पचड़े में पड़ते हो। हर ऑफिस में पॉलिटिक्स होती है। इससे कब तक भागोगे?
दिवाकर- तुम्हारा मतलब है मैं अपने सामने औरतों के बारे में उलटी-सीधी बातें सुनूं?
दिशा- नहीं पर ओवर रिएक्ट करने की भी तो ज़रूरत नहीं। इसमें जॉब छोड़ने की क्या ज़रूरत थी।
दिवाकर- तुम नहीं समझोगी।
दिशा थोड़ी नाराज़ सी हो जाती है।
हां मैं नहीं समझूंगी। तुम्हें कोई समझ भी नहीं सकता। तुम अपने लिए एक ख़ास दुनिया चाहते हो।
दिवाकर-हां शायद, और उस दुनिया में तुम्हारा होना बहुत ज़रूरी है।
दिशा- दिवा प्लीज़। .....ऐनीवेज़ मुझे अभी जाना है। बाद में बात करते हैं।
दिवाकर- ओके अपना ध्यान रखना।
दिशा-हम्म बाय।
फ़ोन कट जाता है लेकिन दिवाकर उसे कान से हटा नहीं पाता। इस बात का एहसास उसे कुछ पलों के बाद होता है।
वो बिस्तर पर लेट जाता है।
उसे लगता है दिशा सही कह रही थी। उसे इतनी जल्दी जॉब नहीं छोड़नी चाहिए थी।
लेटे-लेटे वो कब सो गया उसे पता भी नहीं चला।

उठने के बाद वो अपने लिए कॉफी बनाने किचन में गया  लेकिन वहां सारे बरतन जूठे हैं। दिवाकर वापस लौट आया।
शर्ट पहनी और न्यूज़ पेपर लेने बाहर चला गया।
मार्केट से पेपर और दो वड़ा पाव लिए।
घर आकर वो न्यूज़ पेपर में पागलों की तरह जॉब वाले पन्ने पर गोले लगाता है और गुस्से में पेपर ज़मीन पर फेंक देता है।
पागलों की तरह हड़बड़ाहट में पाव खाता है और फिर लेट जाता है।
उसके दिमाग में दिशा की अलग दुनिया वाली बात गूंजती रहती है।

दिशा... उसकी बातें... हंसी.... कविताएं... दिशा के पापा... जॉब.... दिशा।

दिवाकर को लगता है वो पागल हो जाएगा।
वो लाइट बंद करके सो जाता है।

अगली सुबह वो जॉब इंटरव्यू के लिए तैयार होता है।
एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस चक्कर काटता रहता है। कई मेल आईडी पर अपनी सीवी भेजता है।
कहीं उसके पसन्द की जॉब नहीं मिलती।
इसी दौड़भाग में तीन महीने और बीत जाते हैं।
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दिशा से बात लगभग बंद हो चुकी है। दिवाकर अब खुद जॉब ढूंढने की कोशिश नहीं करता। अगर उसके पास कोई कॉल आ जाए या उसे कोई वेकैंसी बता दे तो वो इंटरव्यू देने चला जाता है।

उसे दिन रात दिशा को खो देने का ख्याल रहता है। वो सिर्फ इस डर से भागने की कोशिश करता रहता है।
दो लोगों के बीच प्यार बना रहने के लिए उनका मिलना ज़रूरी है। आमने-सामने। खासकर उसके लिए जिसका प्यार पूरी तरह परवान न चढ़ा हो।

दिशा और दिवाकर के बीच दूरियां आ गईं थीं। दिशा के प्यार को अब भी मिलने की ज़रूरत थी।

दिवाकर फिर दिशा को कुछ भेजना चाहता है लेकिन अब उसके पास टॉप या गिफ्ट के लिए ज़्यादा पैसे नहीं हैं।
वो अपनी कई सारी कविताएं पन्नों पर लिखता है और कोरियर कर देता है।

इस बार कोरियर भेजने के बाद भी दिशा का फ़ोन नहीं आया।
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अगले महीने दिशा का बड्डे है... कितने महीने हो गए दिशा को देखे.... क्या वो अब भी उसी तरह खिलखिलाकर हंसती होगी... उसने अपनी बड्डे के लिए शॉपिंग शुरू कर दी होगी.... उसके पापा ने फिर उससे शादी की बात तो नहीं की.... दिशा ने क्या कहा होगा... क्या वो मेरे बारे में बता सकी होगी....

दिवाकर के मन में हज़ारों सवाल घूम रहे थे। वो बहुत कमज़ोर हो गया था। कई दिनों से उसकी तबीयत भी ठीक नहीं थी।
अचानक उसका फ़ोन बजा।

हेलो... दिवाकर बोल रहे हैं।
जी हां, आप कौन?
मैं रिदम एडवरटाइज़िंग लिमिटेड से बोल रही हूं।
जी, बताइए।
आपने कंटेंट राइटर की पोस्ट के लिए अप्लाई किया था?
दिवाकर को याद नहीं आया।
उसने कहा- जी किया होगा, इस वक़्त याद नहीं।
आपका इंटरव्यू है कल सुबह 11 बजे... क्या आप आना चाहेंगे?
जी, मैं आऊंगा।
ओके, तो मैं पूरी डिटेल्स आपके ईमेल आईडी पर भेज रही हूं.... थैंक्यू सो मच।
जी, थैंक्यू।

दिवाकर के पास नेट पैक नहीं था। वो कैफ़े चला गया।
अगले दिन उसका इंटरव्यू काफी अच्छा रहा। बड़ी कंपनी थी। पैकेज भी अच्छा था। उन लोगों को दिवाकर की लिखावट बहुत पसंद आयी।

दिवाकर बहुत खुश था। उसने सोचा दिशा को बताए लेकिन फिर सोचा बात पक्की हो जाए तभी उससे कहेगा।

कई दिन बीत गए। दिवाकर के पास कोई कॉल नहीं आया। उसने नेट पैक भी डलवा लिया जिससे कोई मेल न छूट जाए। उसकी उम्मीद टूट रही थी।
दिशा का बड्डे आने वाला था। उसने कोई गिफ्ट नहीं लिया था।
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दो दिसम्बर...

दिवाकर का फ़ोन बजा।

हेलो, दिवाकर बोल रहे हैं।
जी हां, आप कौन?
मैं रिदम एडवरटाइज़िंग लिमिटेड से बोल रही हूं।
जी, बताइए।
मिस्टर दिवाकर, आपने कन्टेंट राइटर के लिए इंटरव्यू दिया था। आप उसके लिए सेलेक्ट हो गए हैं। कॉन्ग्रेचुलेशन्स।
थैंक्यू सो मच मैम।
आप अपने डॉक्युमेंट कल जमा कर दीजिए। आपकी जॉइनिंग कल ही होनी है। आई मीन थर्ड डिसम्बर। ओके?
तारीख सुनकर दिवाकर कहीं खो गया।
हेलो, आर यू देयर मिस्टर दिवाकर?
ओह हां... ओके मैम मैं कल पहुंच जाऊंगा।
ओके, थैंक्यू।
थैंक्यू मैम, थैंक्यू सो मच।

दिवाकर को लगा वो कोई सपना देख रहा है। उसने तुरंत दिशा का नंबर लगाया पर अगले ही पल काट दिया।
नहीं, अभी नहीं बताऊंगा। कल जॉइनिंग के बाद बड्डे विश के साथ बताऊंगा.... उसके लिए बेस्ट गिफ्ट होगा। काश कुछ दिन पहले कॉल आया होता। मैं खुद जाकर दिशा को बड्डे विश कर पाता। खैर सुबह की तैयारी करनी होगी। कपड़े भी ठीक नहीं हैं।
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अगले दिन दिवाकर समय से पहले ही ऑफिस पहुंच जाता है। एक घण्टे इंतज़ार के बाद एच आर आती हैं। ढेर सारे कागज़ों पर उसके साइन लिए जाते हैं। आखिरकार जॉइनिंग हो जाती है।
इन सब कामों में तीन बज जाते हैं।

दिवाकर सोचने लगता है... दिशा क्या सोच रही होगी। मैंने उसे फ़ोन भी नहीं किया। उसका मूड खराब होगा। कोई बात नहीं उसे कविता सुनाकर मना लूंगा। दिवाकर को अपनी कविता पर पता नहीं क्यों पर बहुत भरोसा था।

दिवाकर ऑफिस से छूटकर सीधे एक पार्क में जाकर बैठ जाता है। उसके हाथ में जॉइनिंग लेटर है। वो दिशा को फ़ोन मिलाता है। फ़ोन नहीं मिलता।
वो बार- बार फ़ोन मिलाता है... फ़ोन नहीं मिलता। वो परेशान होने लगता है। उसके पास दिशा का कोई दूसरा नंबर नहीं है। उसकी दोस्त का भी नहीं। वो किसे फ़ोन करे।
दिवाकर ने सुबह से कुछ नहीं खाया है। वो बस फ़ोन किए जा रहा है। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा। अचानक वो उठ कर भागने लगता है।
भागकर वो मार्केट पहुंच जाता है। एक बड़े शोरूम में जाकर दिशा के लिए टॉप खरीदता है। नीले रंग का। उसके पास पैसे नहीं है इस टॉप के लिए। उसे पूरा महीना निकालना है अभी। लेकिन उसे टॉप खरीदना ही होगा।

वो एक चिट्ठी लिखता है... उसमें सबकुछ लिख डालता है। अपनी पुरानी जॉब छोड़ने की माफ़ी, नयी जॉब मिलने की कहानी... उसकी सैलरी। मुम्बई में उसका पता। शादी का भी ज़िक्र करता है... पापा से मिलवाने की बात लिखता है।
टॉप के साथ ये चिट्ठी कोरियर कर देता है।
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अगले दिन से वो ऑफिस जाने लगता है। उसे इंतज़ार है कि कब दिशा उसे फ़ोन करेगी और कहेगी तुम्हारी पसंद बहुत अच्छी है।
मगर फ़ोन नहीं आता।
नयी जॉब में छुट्टी नहीं ले सकता। ये जॉब बहुत अच्छी है.... यहाँ उसे स्वतंत्र होकर लिखने को मिलता है। उसका मनपसंद काम। वो ये सब दिशा को बताना चाहता है। वो कहना चाहता है कि अब वो अपने भईया से पैसे कभी नहीं मंगाएगा।
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दो महीने बीत गए। इन दो महीनों में ऐसा एक दिन भी नहीं गया जब दिवाकर ने दिशा का नम्बर न मिलाया हो।
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फरवरी की एक दोपहर में दिवाकर किसी पार्क में बैठा कविता लिख रहा है...
उससे कविता लिखी नहीं जा रही।
हल्की सर्दी की इस दोपहर में धूप अच्छी लगती है... दिवाकर को नींद आ रही है। वो अपने किसी एहसास को शब्दों में ढाल नहीं पा रहा।
किसी शब्द में इतनी गहराई नहीं है जो दिवाकर के जज़्बातों को खुद में समेट सके।
हर दो या तीन लाइन के बाद दिवाकर दूसरी कविता लिखने लगता है। कोई कविता पूरी नहीं हो पा रही... क्यों वो लिख नहीं पा रहा...
क्या एड लिखते-लिखते कविता लिखने की कला वो भूल गया है...
उसके दिमाग में दिशा के शब्द गूंजते हैं... कैसे सोच लेते हो तुम ये सब?
फिर अपना ही जवाब सुनाई देता है... प्रेरणा।
वो प्रेरणा खो गयी है... अब मैं कभी कविता नहीं लिख सकूंगा।
नहीं मेरी प्रेरणा नहीं खो सकती... अचानक दिवाकर उठ खड़ा होता है।
दिवाकर ने हर छोटे-बड़े फैसले हड़बड़ाहट में किए हैं।
वो तेज़ी से कैफ़े की तरफ बढ़ता है। स्मार्ट फ़ोन होने के बाद भी उसने अब तक ऑनलाइन ट्रांजेक्शन करना नहीं सीखा। न ही कोई ऐप डाउनलोड की है। टेक्नोलॉजी से वो कभी दोस्ती नहीं कर पाया। दिशा हर बार उससे कहती कि तुम्हारे फ़ोन का होना न होना बराबर है। आज सचमुच उसे ऐसा ही लग रहा था।
जो फ़ोन दिशा से उसकी बात न करा सके उसका होना न होना बराबर ही है।

कैफे में उसने टिकट देखने को कहा। अगले महीने की तीन तारीख का टिकट मिल रहा था। उसने बिना ऑफिस में पूछे, बिना छुट्टी की चिंता किए... टिकट करा लिया। दो दिन बाद का लौटने का टिकट भी मिल गया।

अब दिवाकर को ज़रा सुकून मिला। उसने फिर दिशा को फ़ोन मिलाया लेकिन हमेशा की तरह उसके फ़ोन का होना न होना बराबर ही निकला।
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तीन मार्च-
दिवाकर ट्रेन में बैठा सोच रहा था।
दिशा से माफ़ी मांग लूंगा... वो बहुत नाराज होगी। उसके पापा को बताऊंगा अपनी सैलरी। इतनी सैलरी तो काफी होगी दामाद बनने के लिए। वो मना नहीं कर सकेंगे। अब कोई वजह भी तो नहीं है मना करने की।
दिवाकर का चोर मन उसे कुछ और सोचने को कह रहा था लेकिन वो उसे डपट देता... नहीं- नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ होगा। मुझे मेरी प्रेरणा ज़रूर मिल जायेगी।

हम सब के पास दो मन होते हैं... एक मन अच्छा-अच्छा सोचने को कहता है। दूसरे मन में चोर रहता है। चोर मन कई बार प्रैक्टिकल हो जाता है।
सही-गलत कुछ नहीं होता इनमें।

ट्रेन भागी जा रही है.... दिवाकर लगातार सोच रहा है। रात में बर्थ पर बार-बार करवट ले रहा है। उसे नींद नहीं आ रही। कम्बल ओढ़े होने के बाद भी उसे ठण्ड लग रही है... जैसे बुखार चढ़ने वाला हो। वो दिशा के पापा के साथ होने वाली अपनी बातचीत के संवाद लिख रहा है दिमाग में ही। उसे कब नींद आ गयी पता नहीं चला।

कई महीनों बाद भी दिशा का शहर बिलकुल वैसा ही है। दिशा भी वैसी ही होगी.... स्टेशन से बाहर आकर दिवाकर ने सोचा।

उसे समझ नहीं आ रहा था सबसे पहले कहां जाए। उसने सोचा पार्क की उसी बेंच पर जाकर बैठ जाए... दिशा आ जाएगी। लेकिन अगले ही पल वो एक होटल की तरफ बढ़ने लगा।

होटल में दो दिन के लिए एक कमरा बुक किया उसने। नहाकर तैयार हुआ और वो सारे तोहफे एक बैग में रखे जो वो दिशा के लिए लाया था।

वो सीधे दिशा के घर जाना चाहता था लेकिन ये ठीक नहीं लगा। उसने सोचा दिशा ऑफिस में होगी। अभी बहुत सुबह है वो ऑफिस 10 बजे पहुंचती है।
उसने ऑफिस का ही ऑटो कर लिया। उसके चेहरे पर मुस्कराहट आने लगी लेकिन तभी उसने पता नहीं क्या सोचकर एकदम गंभीर चेहरा बना लिया। जैसे उसे कोई देख रहा हो।
सारे रास्ते उसके पहचाने हुए थे फिर भी वो रास्ते का हर बोर्ड पढ़ लेना चाहता था।
दिशा का ऑफिस आ गया।
ऑटो वाले को पैसे देते वक़्त भी उसकी निगाहें ऑफिस के गेट पर थी।
अभी दिशा के आने में एक घंटे से भी ज़्यादा समय था।
उसने सोचा गॉर्ड से दिशा के बारे में पूछे मगर वो खुद को क्या बताएगा... अगर गॉर्ड ने पूछ लिया कि आप कौन तो...?
वो टहलने लगा। आधे घंटे गुज़र गए। उसे अजीब सी गुदगुदी हो रही थी... कभी ख़ुशी हो रही थी कभी रोना आ रहा था।
10 बज गए... दिवाकर हर ऑटो को घूर रहा था। इस ऑटो में दिशा ही होगी। नहीं है... इसके पीछे तो होगी ही।
कहीं उसने गाड़ी तो नहीं ले ली?
साढ़े दस बज गए हैं। इतनी देर तो वो नहीं करती। टाइम से आना उसे अच्छा लगता है। गार्ड से पूछ लेता हूं।
इस ऑटो में हो सकती है...
10:45... उसके हाथों में पसीना आने लगा।
दिवाकर गार्ड की तरफ दौड़ा।
गार्ड उसे बहुत देर से देख रहा था।
दिवाकर- भाई साहब...
गार्ड- हां सर कहिए। किससे मिलना है आपको?
दिवाकर- आप दिशा को जानते हैं? इसी दफ्तर में काम करती हैं।
गार्ड- दिशा मैडम।
गार्ड के चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है। जैसे किसी अपने ख़ास का नाम बहुत दिनों बाद सुनने पर आती है।
काम करती हैं नहीं सर। करती थीं। अब तो उन्होंने छोड़ दिया न। शादी हो गयी न उनकी।
दिवाकर को जैसे कुछ सुनाई न दिया हो।
दिवाकर- जी? क्या कह रहे हैं आप? दिशा जो अकाउंट डिपार्टमेंट में थीं। आप जानते हैं न उन्हें?
गार्ड- अरे हां सर। दिशा मैडम को कैसे भूल सकता हूं। उन्होंने बुलाया था मुझे शादी पर। कौन बुलाता है गार्ड को बताइए?
दिवाकर को सिर्फ गार्ड के होंठ हिलते हुए दिखाई दे रहे थे। उसके कदम पीछे हटने लगे। गार्ड दिशा की तारीफ़ करता जा रहा था। उसने पूछा सर आपको नहीं पता चला क्या? आप दोस्त हैं उनके?
दिवाकर मुड़ गया बिना सुने। उसने धीरे से कहा, नहीं कुछ नहीं। शायद गार्ड को सुनाई भी नहीं दिया।

वो चलने लगा। उसके हाथों के पैकेट अचानक बहुत भारी हो गए थे। वो उन्हें वहीं कहीं रख देना चाहता था।

अचानक वो फिर मुड़ा। गार्ड के पास पहुंचा। उसने पूछा आप तरन्नुम को जानते हैं?
उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि गार्ड सुन नहीं पाया।
उसने पूछा, जी?
दिवाकर- तरन्नुम, दिशा की दोस्त। आप जानते हैं उन्हें?
गार्ड- हां वो मैडम आती थीं दिशा मैडम से मिलने। पर अब नहीं आतीं।
दिवाकर- उनका नंबर?
दिवाकर को पता था गार्ड के पास तरन्नुम का नंबर नहीं होगा। फिर भी वो पूछ रहा था।

गार्ड- नहीं सर, लेकिन आप अंदर जाकर साहिल सर से पूछ लीजिए। अकाउंट डिपार्टमेंट में ही हैं। उनके पास हो सकता है।
दिवाकर अंदर जाने लगा।

दिवाकर अकाउंट डिपार्टमेंट में हर कुर्सी को ऐसे घूर रहा था जैसे कहीं दिशा बैठी होगी। उसके दिमाग में कुछ नहीं आ रहा था। कोई बात नहीं। सन्नाटा था बिलकुल। उसे नहीं पता था वो तरन्नुम का नंबर लेकर क्या करेगा।
उसने किसी से पूछा- साहिल जी कहां मिलेंगे?
दिवाकर- साहिल?
साहिल- हां, मैं साहिल। बताइए?
दिवाकर- मैं दिवाकर। दिशा का दोस्त।
साहिल- ओह। हाय दिवाकर। आप मुम्बई से कब आए। बैठिए न।
साहिल थोड़ा हड़बड़ा गया था। उसकी हड़बड़ाहट से समझ आ रहा था कि वो दिशा और दिवाकर की दोस्ती को जानता है।
दिवाकर बैठ गया और साहिल को देखे जा रहा था जैसे उसने कोई गलती की हो।
साहिल- क्या लेंगे आप दिवाकर?
दिवाकर- नहीं कुछ नहीं। असल में दिशा का नंबर नहीं लग रहा। आपके पास तरन्नुम का नंबर होगा क्या?
साहिल- मेरे पास दिशा का नया नंबर है। तरन्नुम का भी है। आप चाय लेंगे?
दिवाकर- तरन्नुम का नंबर दे सकेंगे आप?
साहिल- जी। नोट कर लीजिए। 9839....
आप चाय पी लीजिये।
दिवाकर- नहीं। थैंक्यू। बस एक गिलास पानी।
साहिल ने पानी दिया।
साहिल बहुत कुछ कहना चाह रहा था पर उसने कुछ नहीं कहा।
दिवाकर पानी पीकर खड़ा हो गया।
थैंक्स साहिल जी।
साहिल ने मुस्करा दिया।
दिवाकर तेज़ क़दमों से बाहर आया। उसने गार्ड को शुक्रिया कहा और बिना उसका जवाब सुने वो चलने लगा।
सामने ऑटो थी। उसने होटल का पता बताया और बैठ गया।
होटल के सामने ऑटो रुकी। उसने उतर कर पैसे दिए और सीधे अपने रूम में चला गया। उसे अपना हाथ बहुत खाली लगा। उसने महसूस किया कि उसके हाथ में जो पैकेट थे वो अब नहीं है। उसने सोचा कि भाग कर ऑटो को ढूंढे लेकिन अगले ही पल वो बेड पर बैठ गया। उसे याद भी नहीं कि वो तोहफे ऑफिस में छूटे या ऑटो में। वो कुछ सोचना नहीं चाह रहा था।
उसने मोबाइल में तरन्नुम का नंबर देखा लेकिन मिलाने का मन नहीं हुआ। उसके सामने आइना था। उसकी नज़र खुद पर पड़ी। उसने नज़रे हटा ली। उसका चेहरा रोता हुआ दिख रहा था। आज से पहले उसे याद नहीं वो कब रोया था। हां शायद इस शहर से अलग होते समय।
उसने अपनी शर्ट उतार कर फेंक दी। नीले रंग की शर्ट।
उसके मुंह से निकला- अब कभी नहीं पहनूंगा। फिर वो चिल्लाया... और फूट-फूट कर रोने लगा। वो इसी वक़्त कहीं अदृश्य हो जाना चाहता था। वो जितना रो रहा था उतना ही और रोना चाहता था। उसे लग रहा था अब वो कभी चुप नहीं हो पाएगा। रोते-रोते वो कब सो गया उसे पता नहीं चला। उठा तो शाम के छह बज चुके थे। उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था। सामने मेन्यू रखा था।
चाय, कॉफी, लेमन सोडा, कटलेट, बर्गर, चाउमिन... चाउमिन।
उसने कहा चाउमिन।
फिर वो मेन्यू में मंचूरियन ढूंढने लगा।
हां मंचूरियन।
उसने फ़ोन लगाया- एक चाउमिन और मंचूरियन।
रूम में दोनों चीज़ें आ गयी।
वो जल्दी-जल्दी खाने लगा। उसकी आँखों से अब भी आंसू बह रहे थे।
वो इतनी जल्दी खा रहा था कि उसके बिस्तर पर चाउमिन और मंचूरियन बिखर गया था।
उसने अपनी नीली शर्ट उठाई और उससे अपना मुंह रगड़ लिया। फिर उसी शर्ट से बिस्तर साफ़ करने लगा। रगड़ने से उसका मुंह जलने लगा था। उसने पानी पिया।
फिर फ़ोन उठाया और तरन्नुम का नंबर मिला दिया।
दिवाकर- हेलो, तरन्नुम बोल रही हैं?
तरन्नुम- हां आप कौन?
दिवाकर- मैं दिवाकर बोल रहा हूं। दिशा...
तरन्नुम- हां, हां दिवाकर जी। कैसे हैं आप?
दिवाकर- मैं आपके शहर आया हूं। क्या हम कुछ देर के लिए मिल सकते हैं?
तरन्नुम कुछ देर के लिए शांत हो जाती है। फिर कहती हैं- जी बताइए कब और कहां मिलना है। पार्क में...
दिवाकर- नहीं। पार्क में नहीं। किसी रेस्टोरेंट में मिल लेंगे। दोपहर में एक से दो के बीच। मैं कल बताता हूं आपको। ठीक है न?
तरन्नुम- जी।

अगले दिन दिवाकर तरन्नुम से एक रेस्टोरेंट में मिलता है। दोनों बहुत देर तक शांत रहते हैं। फिर इधर-उधर की बातें करते हैं। अचानक दिवाकर सवाल कर बैठता है, दिशा, दिशा की शादी कब हुई?
तरन्नुम-27 जनवरी
दिवाकर ऐसे सवाल कर रहा था जैसे इंटरव्यू ले रहा हो।
दिवाकर- अभी कहां है वो?
तरन्नुम- पुणे
दिवाकर-वो खुश थी इस शादी से?
तरन्नुम-उसे होना पड़ा।
दिवाकर-तो क्या जबरदस्ती...
तरन्नुम- नहीं, वो और इंतज़ार नहीं करना चाहती थी। उसकी उम्मीद टूट गयी थी आपसे।
दिवाकर-कब तय हुई थी बात?
तरन्नुम- उसकी बड्डे के बाद।
दिवाकर जैसे चिल्ला पड़ा हो- मगर तब तक तो मेरी जॉब लग गयी थी, मैं उसे फ़ोन लगाता रहा, उसका फ़ोन ही नहीं लग रहा था। उसे एक बार बात तो करनी चाहिए थी।
तरन्नुम- वो परेशान थी, घरवालों की तरफ से प्रेशर था। उसने आपसे बात करने की कोशिश की थी पर पता नहीं फिर क्या हुआ।
दिवाकर खड़ा हो जाता है। ठीक है मैं चलता हूं।
तरन्नुम चुप रहती है, दिवाकर जाने लगता है।
तरन्नुम पीछे से आवाज़ लगाती है
.. दिवाकर।
दिवाकर मुड़ता है।
उसने आपको एक कोरियर भी भेजा था, आपका जवाब भी नहीं आया... उसके बाद ही उसने शादी के लिए हां कर दी।
दिवाकर- मुझे कोई कोरियर नहीं मिला।
दिवाकर चला गया।
कल सुबह की ट्रेन पकड़नी है दिवाकर को। उसका दिमाग नहीं चल रहा। वो अपने किसी दोस्त से नहीं मिला। अब वो रो नहीं रहा। न ही उसे गुस्सा आ रहा है।
जब कोई रिश्ता पूरा हो जाता है तो एहसासों का खालीपन हमें घेर लेता है। हमारे अंदर कुछ नहीं बचता। न प्यार, न गुस्सा, न दुःख। कुछ समय के लिए हम खोखले से हो जाते हैं और यही समय हमें स्थायी लगने लगता है।
दिवाकर मुम्बई पहुंचकर काम पर लौट जाता है। वो अब एक दिन में कई एड लिखने लगा है। उसका रिपोर्टिंग मेनेजर काफी खुश रहता है उससे।
छह महीने के बाद उसका प्रमोशन हो गया। वो कभी-कभी ड्रिंक कर लेता है। खासकर पार्टी में। पहले वो बिलकुल ही मना कर देता था। कई दोस्त नाराज़ भी हो जाते थे।
देर तक ऑफिस में ही रहता है। छुट्टी नहीं लेता। फ्रेंच कट दाढ़ी बढ़ा ली है। उसका बॉस अब उसका दोस्त हो गया है।
हर पार्टी में उससे कविता सुनाने को कहा जाता है और वो कोई पुरानी कविता सुनाता है। नई कविता उसने नहीं लिखी है।
उसकी सैलरी काफी हो गयी है। उसके भाई शादी के लिए कई रिश्ते बता चुके हैं पर उसने शादी से इनकार कर दिया।
उसने मुम्बई में ही एक छोटा सा फ्लैट ले लिया है। एक आंटी आती हैं खाना बनाने।
उसके रूम में कई अवार्ड जुट गए हैं। लगभग 1 साल से उसने कोई छुट्टी नहीं ली है। वो घर भी नहीं जाता पर वो उदास नहीं है। कई लोगों से मिलता है। हंसता है, पार्टी करता है। जैसे उसने कोई नया खोल पहन लिया हो। वो अपने किसी पुराने परिचित से मिलना नहीं चाहता। नए दोस्तों में खोया रहता है।
---------
तीन महीने बाद।
दिवाकर के बॉस उसे बुलाते हैं।
बॉस- दिवाकर तुम्हें पुणे जाना होगा। हमारी कंपनी पुणे की स्टारडम फर्म के साथ काम करने वाली है। उसके सीईओ मेरे दोस्त हैं, मिस्टर समर्थ।
उन्होंने कंपनी की तरक्की और अपनी वाइफ के बड्डे पर पार्टी रखी है। मुझे जाना था लेकिन यहां कुछ ज़रूरी मीटिंग है।
दिवाकर- कब जाना होगा सर?
बॉस-3 को पार्टी है तुम जब चाहो निकल जाओ। और हां घूमने के लिए छुट्टी भी ले लो। कबसे काम किये जा रहे हो। घूमोगे नहीं तो तुम्हारी क्रिएटिविटी पर असर पड़ेगा यार।
दिवाकर- जी सर।
दिवाकर केबिन से बाहर आता है। कैलेंडर देखता है छुट्टी के लिए।
3 को पहुंचना है तो 2 को निकल जाऊंगा और 5 तक वापस आ जाता हूँ।
मेल करने के लिए वो डेट लिखता है।
3 दिसम्बर....
वो मेल कर देता है। एचआर से टिकट करा दी जाती है। होटल बुक हो गये।
---------
तीन दिसम्बर, पुणे

दिवाकर बुके लेकर पार्टी में पहुंचता है। काफी लोग आये हुए हैं। एडवरटाइजिंग जगत के बड़े-बड़े नाम... लगभग हर हाथ में ग्लास है। कई लोग ग्रुप में खड़े हैं। दिवाकर के भी कई जानने वाले हैं। वो सबसे मिल रहा है। उसका मुम्बई का एक पुराना कलीग भी मिलता है।
अरे दिवाकर आप मिस्टर समर्थ से मिले?
दिवाकर- नहीं बस उन्हें ही ढूंढ रहा हूँ।
आइये आपको मिलाते हैं।
समर्थ जी ये हैं मिस्टर दिवाकर, रिदम से।
समर्थ- ओहो, अरे मिस्टर दिवाकर वेलकम। आपके बॉस आपकी बहुत तारीफ करते हैं। गुड टू सी यू हेयर।
दिवाकर- थैंक्यू। दिस इज़ फॉर यू।
दिवाकर बुके आगे कर देता है।
समर्थ- ओह... नो। आई एम नॉट द स्टार ऑफ टुडे। शी वाज़ देयर। कम, आई इंटरड्यूज यू।
डार्लिंग.... ही इज़ दिवाकर फ्रॉम मुम्बई।
एंड दिवाकर शी इज़ माय ब्यूटीफुल वाइफ दिशा।
कभी कान के पास ज़ोर की चोट लग जाए तो सीटी सी बजती है। दिवाकर को वो सीटी सुनाई दे रही थी।
दिवाकर हिल भी नहीं पा रहा। समर्थ बोले जा रहे थे। दिशा और दिवाकर एकटक एक दूसरे को घूर रहे हैं। इससे पहले दिशा की आंखों से आंसू गिरे वो हंस देती है। और हेलो कहकर हाथ आगे बढ़ा देती है।
दिवाकर अब भी जो हो रहा है उसके होने पर भरोसा नहीं कर पा रहा। असल में उसमें कुछ हलचल ही नहीं है। जैसे साँसें भी रुक गई हों।
समर्थ दिवाकर की पीठ पर हाथ मारते हैं।
वेयर आर यू मिस्टर। इज़ एवरीथिंग ऑलराइट?
दिवाकर जैसे नींद से जागा।
यस, यस। उसने बुके पकड़ा दिया और धीरे से कहा हैप्पी बड्डे।
दिशा ने बुके ले लिया।
समर्थ को किसी ने आवाज़ दी।
वो दिवाकर से एन्जॉय कहकर चला गया।
दिशा और दिवाकर वहीं खड़े थे।
उनकी आँखें एक दूसरे से बात कर रही थीं।
दिशा की आंखें-तुमने दाढ़ी क्यों बढ़ा ली, अच्छी नहीं लगती।
दिवाकर की आंखें- क्या करूं अच्छा लगकर।
दिशा की आँखें-मैं उतनी भी बुरी नहीं हूं जितना तुम समझ रहे हो।
दिवाकर की आंखें- मैं कभी बुरा समझ ही नहीं सकता।
दिशा को कोई बुलाता है। वो सुन नहीं पाती।दिवाकर कहता है आपको कोई बुला रहा है।
दिशा को 'आपको' बुरा लगता है।
दिशा- पेन-पेपर है?
दिवाकर-जेब से निकालता है।
दिशा उसमें नम्बर लिखती है और चली जाती है।
दिवाकर का मन नहीं लगता वो पार्टी से चला जाता है।
रूम में पंहुचकर वो नम्बर देखता रहता है।
अगले दिन सुबह काफी सोचने के बाद वो फ़ोन लगाता है।
दिशा फ़ोन उठाते ही बोलती है, कितनी देर लगा दी। मैं कबसे इंतज़ार कर रही थी। पुणे के किसी बीच पर मिलने को बुलाती है और फ़ोन रख देती है।
दिवाकर कल रात को याद करता है। दिशा भी कितनी बदल गयी है। कितनी गंभीर हो गयी है। उसे तो साड़ी पहनना नहीं पसंद था। वो हमेशा ड्रेस पहनना चाहती थी। और वो ग्रे कलर। इतने बुझे रंग तो उसे नहीं चाहिए थे। क्या वो खुश नहीं है? क्या वो लौट आएगी? नहीं ये सब सोचना ठीक नहीं।
वो तैयार होकर मिलने निकलता है।
दिशा पहले से ही वहां बैठी है।
दिशा- कैसे हो दिवा?
दिवा सुनकर दिवाकर रुक जाता है। फिर कहता है ठीक हूं।
दिशा-तुमने दाढ़ी क्यों बढ़ा ली?
दिवाकर-क्यों अच्छी नहीं लगती?
दिशा- नहीं ठीक है।
दिशा-मैं बहुत बुरी हूँ न?
दिवाकर-नहीं।
दिशा-तुमने मुम्बई जब घर बदला तो...
दिवाकर-दिशा प्लीज़। मैं वो सब बात दोहराना नहीं चाहता।
दोनों चुप हो जाते हैं
दिवाकर-तुम खुश हो।
दिशा मुस्करा कर कहती है समर्थ मुझे बहुत प्यार करते हैं, लेकिन कभी कविता नहीं लिखते। वो मेरे लिए महंगे तोहफे लाते हैं लेकिन मेरा घंटों इंतजार नहीं करते। उन्होंने मेरे लिए कई नौकर रखे हैं मुझे नौकरी नहीं करने देते।
दिवाकर-तुम उन्हें प्यार करती हो?
दिशा-अमूमन हर पत्नी अपने पति को प्यार करती है।
दिवाकर-तुम अगर एक बार मुझसे बात कर लेती तो...
दिशा- वही तो मैं तुम्हें बता रही थी। मेरा फ़ोन गुम गया था। नम्बर याद नहीं था। तुम किसी सोशल साइट पर नहीं थे। मैंने तुम्हारे पते पर कोरियर भेजा तुम्हारा जवाब नहीं आया। कुछ दिन बाद वो कोरियर वापस आ गया क्योंकि तुमने घर बदल दिया था।
दिवाकर हँसता है- ये तो फ़िल्मी कहानी हो गयी। आज के टाइम पर तुम एक नंबर नहीं ढूंढ सकीं।
दिशा-मुझे पता है तुम विश्वास नहीं करोगे। खैर ये
वो कोरियर है जो मैंने तुम्हें भेजा था। शादी के कुछ दिन पहले वापस आया। ये तुम रख लो।
दिवाकर-क्या है इसमें? मैं क्या करुंगा इसका।
दिशा-मैंने पहले ही समर्थ को तुम्हारे बारे में बताया था। कल रात नाम भी पता चल गया और पहचान भी हो गयी।
दिवाकर-क्या?
दिशा-हां, एक धोखा देने का मलाल लेकर जी रही हूं, दूसरा नहीं...
दिशा की आंखें नम हो जाती है। वो पैकेट छोड़ कर चली जाती है।
दिवाकर बहुत देर तक बैठा रहता है।
फिर पैकेट उठाता है।
उसमें एक लैटर रखा होता है।
डिअर दिवा,
तुम कहां चले गए हो। मेरा फ़ोन खो गया है, नंबर नहीं है तुम्हारा। जैसे ही लेटर मिले मेरे नए नम्बर 98989... पर कॉल करना। पुराना नंबर चालू नहीं हो सका। तुम्हारी जॉब लगी हो या नहीं एक बार यहां आ जाओ। मैं तुम्हें पापा से मिलवाना चाहती हूं। क्योंकि अब वो शादी के लिए ज़्यादा इंतज़ार नहीं कर सकेंगे। मैं तुमसे ही शादी करना चाहती हूँ क्योंकि मैं तुमसे प्यार करती हूँ। तुम्हारी कविताएं लौटा रही हूँ जिससे तुम इसे अपने साथ लेकर आओ। ये तुम्हारे साथ ही पूरी लगती हैं।
तुम्हें खो देने का डर लगने लगा है। अच्छा होता तुम्हें जाने न देती। अगर तुम न लौटे तो मुझे शादी करनी होगी। मैं पापा-मम्मी का दिल नहीं दुखा सकती। आई होप यू अंडरस्टैंड मी। प्लीज़ लौट आओ। आई एम वेटिंग फॉर यू।
विद लव,
दिशा।

Saturday, October 8, 2016

गुलाब

मेरी पहली कहानी--

सांची की आंखें झपकने लगी थीं। बहुत देर से मां बाल सहला रही थी पर वो सोना नहीं चाहती थी। गुस्सा आ रहा था उसे।
उसने मां का हाथ झटक दिया।
थोड़ा गुस्सा और आधी रोने जैसी आवाज़ में बोली- तुम अब तक हमें बच्चा समझती हो। हम कोई छोटे बच्चे नहीं हैं।
मधु ने तिरछी मुस्कान के साथ कहा- हां मेरी बिटिया तो बहुत बड़ी हो गयी है। अब वो स्कूल से अकेले आ भी जाती है।
सांची की आवाज़ ठीक हो गई थी और नाराज़गी में कई सवाल घुल गये थे।
उठकर बैठ गयी और बोली- तो तुम हमेशा हमें राजकुमारियों की कहानी क्यों सुनाती हो। मुझसे बड़ों की तरह बात क्यों नहीं करती? तुम ही तो कहती हो बेटी बड़ी होकर दोस्त बन जाती है। तुम्हारा तो कोई दोस्त भी नहीं।
मधु अपनी 13 साल की बेटी को बड़ा होते देख रही थी।
सांची ने इस बार मिमियाते हुए कहा- मां, कोई बड़ों वाली कहानी सुनाओ न। सुनाओ न। प्लीज़।
मधु ने सख्ती से कहा- दो बज रहे हैं। एक घण्टे बाद तुम्हें ट्यूशन जाना है। थोड़ी देर सो लो।
सांची ने फिर कहा- हमें नींद नहीं आ रही। सुनाओ न मां प्लीज़।
मधु को लगा सांची नहीं मानेगी।
वो कुछ सोचने लगी।
कुछ देर के लिए कमरे में सिर्फ पंखे की आवाज़ सुनाई दे रही थी।
सांची सोच रही थी कि मां उसके लिए कोई कहानी याद कर रही है पर अब उसका सब्र जवाब दे गया।
वो मां पर लद गयी।
मां सुनाओगी?
मधु ने लंबी सांस ली जैसे किसी सफर से लौटी हो और कहा- अच्छा लेट, सुनाती हूं।
सांची- हूं।
मधु में कहानी शुरू की।
दूर के गांव में एक लड़की थी, मधु।
सांची तपाक से बोली- मधु तो तुम हो।
मधु ने उसे डांटा- हां मैं हूं। वो भी थी। तुम बीच में बोलोगी तो कोई कहानी नहीं सुनाएंगे।
सांची- अच्छा नहीं मां, अब नहीं बोलेंगे। सुनाओ न।
मधु- तो दूर के गांव में एक लड़की थी मधु। 17 साल की।
सांची- हमसे चार साल बड़ी न मां।
मधु ने उसे घूरा और सिर हिलाया।
वो दसवीं में पढ़ती थी। बहुत होनहार। सारे सब्जेक्ट में अव्वल रहती थी। बस उसे आर्ट बनानी नहीं आती थी। वैसे तो उसने साइंस ले रखी थी लेकिन उसके स्कूल में आर्ट ज़रूरी सब्जेक्ट था।
उसे हमेशा आर्ट की परीक्षा में फेल हो जाने का डर सताया करता था।
सांची ने कहा- फिर?
मधु ने उसे चिपका लिया और बोली फिर... उसे एक दोस्त मिला।
सांची उठकर बैठ गई---हां और उस दोस्त ने मधु की मदद की और वो पास हो गयी। इसलिए हमें भी अपने दोस्तों की मदद करनी चाहिए। यही न। नहीं सुननी कहानी।
मधु- नहीं मेरा बच्चा, मेरे लाल... सुनो तो आगे।
अगर कहानी ख़त्म होने के बाद न अच्छी लगे तो कट्टी कर लेना। बस?
सांची फिर मां की साड़ी पकड़ कर लेट गयी।
तो मधु को एक दोस्त मिला। उसकी आर्ट बहुत सुंदर थी। वो बहुत शांत रहता था। सारे सब्जेक्ट में पीछे बस आर्ट में अव्वल। हमेशा डांट खाता। चुपचाप।
उसका कोई दोस्त नहीं था। मधु ने उसे दोस्त बना लिया। मधु उसे बाकी सब्जेक्ट में मदद करती और वो हर समय कोई न कोई पेंटिंग बनाता रहता।
सांची- उसका नाम क्या था मां।
मधु- आलेख।
नाम लेकर मधु शांत हो गयी।
सांची- फिर क्या हुआ मां?
समय ऐसे ही बीत रहा था। आलेख रोज़ नयी पेंटिंग बनाता और मधु को दिखाता। अब वो मुस्कराने लगा था लेकिन सिर्फ मधु के सामने।
मधु उसकी पेंटिंग में डूब सी जाती थी।
वो कभी शाम का दृश्य बनाता कभी कोई लंबी वीरानी सड़क।
सांची- वीरानी?
मधु- मतलब जहाँ कोई इंसान न हो। खाली सड़क।
उसकी पेंटिंग में उदासी रहती। सैडनेस।
अब मधु को भी आर्ट अच्छी लगने लगी। आलेख ने उसे कुछ डिजाइन दिए और उनकी प्रैक्टिस करने को बोला।
मधु उन्हें बनाने लगी थी।
आलेख घर से कभी टिफिन नहीं लाता।
मधु उसे अपने टिफिन से खाने की ज़िद करती। काफी मना करने के बाद अब वो खाने लगा था। मधु उसे बात-बात पर छेड़ती और वो बस मुस्करा देता।
मधु एक सपना जीने लगी थी। उसे सब कुछ अच्छा लगने था। खूब मन लगाकर पढ़ती थी वो। उसके सामने सपनों की झड़ी लग गई थी।
उन सपनों में वो रोज़ नए रंग भरती और हां उन सारे सपनों में आलेख उसके साथ रहता। वैसा ही मुस्कराता, कैनवस में रंग भरता... मगर उदासियों में नहीं खुशियों में।
परीक्षाएं पास आ गईं थी मगर अब मधु को किसी बात का कोई डर नहीं था। वो बस चाहती थी कि आलेख अच्छे नम्बरों से पास हो जाए। वो सारे ज़रूरी सवाल उसे याद करने को कहती।
आलेख भी पूरी शिद्दत से उन्हें याद करता।
परीक्षाएं शुरू हो गईं। अब मधु और आलेख के पास ज़्यादा समय होता साथ बिताने के लिए।
एग्जाम के बाद वो लोग स्कूल के पीछे वाले बाग़ में चले जाते। मधु आलेख से पेपर में आए सवालों के जवाब पूछती। गलत होने पर गुस्सा करती और सही होने पर मुस्कराकर शाबाश कह देती।
इसके बाद बस मधु बोलती रहती... आलेख उसे सुनता रहता।
घर की बातें, बाबा की नसीहतें, मां की डांट सब बताती। आलेख हां, अच्छा कहकर सब सुनता रहता।
सांची- क्या वो दोनों एक दूसरे को प्यार करते थे?
मधु- तुम्हें पता है प्यार क्या होता है?
सांची- हां, अब हम बड़े हो गए हैं न मां।
मधु- हां लेकिन वो मधु 17 साल में भी प्यार को नहीं जानती थी। उसे बस इतना पता था कि आलेख के साथ रहना उसे अच्छा लगता था।
सांची- वो तो बहुत बच्ची थी।
मधु ने सांची का सिर सहलाया और कहा हां।
रिजल्ट आया। मधु फर्स्ट डिवीज़न पास हुई और आलेख सेकंड डिवीज़न।
मगर दोनों खुश थे।
उस दिन आलेख ने मधु को एक फूल दिया। गुलाब का फूल।
और परीक्षा में मदद करने के लिए शुक्रिया कहा।
उस दिन पहली बार मधु को शरमाने का मतलब समझ आया।
इसके बाद दोनों नहीं मिले।
मधु की मां उसे लेकर नानी के घर चली गयी।
तब फ़ोन- मोबाइल सबके घर नहीं होते थे।
हर बार नानी के घर में उधम मचाने वाली मधु इस बार बहुत उदास थी। उसका मन ही नहीं लगता था।
वापस आने के बाद उसे आलेख से मिलने की जल्दी थी लेकिन उसके घर के पास रहने वाले दूसरे लड़के ने मधु को बताया कि आलेख शहर चला गया है आगे की पढ़ाई करने।
मधु को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वो कैसे आलेख से बात करे, मिले।
उसने कई बार सोचा कि उसके घर जाए और शहर का पता ले ले। पते पर वो चिट्ठी लिख सकती थी।
लेकिन उसकी हिम्मत न पड़ी।
क्या कहेगी वो आलेख की मां से... उसकी अपनी मां क्या सोचेगी... बाबा ने देख लिया तो।
मधु की हंसी कहीं गुम हो गयी थी। वो बस आलेख की निशानी उस गुलाब के फूल से बतियाती।
अब उसका कोई दोस्त नहीं था।
इंटर में भी उसने साइंस ली।
जैसे-तैसे इंटर बीत रहा था। उसे लगा शायद इंटर के बाद आलेख आएगा।
एक बार ही सही, अपने घर वालों से मिलने तो ज़रूर आएगा।
लेकिन वो नहीं आया।
इंटर की परीक्षाएं ख़त्म हो गईं।
छुट्टियां आ गईं।
मधु और पढ़ना चाहती थी। शहर जाना चाहती थी। मगर उसके माँ-बाबा ने उसके लिए कुछ और सोच लिया था।
गांव में उस समय लड़कियों की जल्दी शादी हो जाया करती थी।
सांची ने उदास होकर कहा- ओह नो.... तो क्या उसकी शादी हो गयी?
उसने अपने मां- पापा को बोला क्यों नहीं कि वो आलेख को प्यार करती है।
मधु हंसते हुए- क्योंकि वो पगली अब भी उस प्यार को नहीं समझी थी।
सांची- फिर?
मधु- फिर क्या... कहानी ख़तम।
सांची-नहीं मां आगे भी तो कुछ हुआ होगा न?
हो सकता है एन शादी के दिन बाइक पर बैठकर आलेख आ गया हो और उसे भगा ले गया हो।
या फिर आलेख ने ही उसके माँ-पापा से शादी की बात कर ली हो।
मधु हंस पड़ी। उसकी आँखों में नमी थी। उसने सांची को गले लगा लिया। उसके माथे को चूमा और कहने लगी...
नहीं मेरी सच्चू ऐसा कुछ नहीं हुआ। मधु की शादी किसी और से हो गयी। वो अपने आपको नए परिवार में डुबोने की कोशिशों में खो गयी।
सांची- क्या वो फिर कभी आलेख से नहीं मिली?
मधु- तुम कितने सवाल करती हो? तीन बज गए हैं तुम्हें ट्यूशन जाना है। चलो जाओ मुँह धो।
सांची- नहीं मां प्लीज़ बता दो न।
मधु- ओफ्फो।
हां.... कई साल बाद बड़े शहर के एक मॉल में दोनों मिले थे। मधु को एक बेटी हो चुकी थी।
आलेख पहले से ज़्यादा गंभीर लगने लगा था। उसकी दाढ़ी बढ़ गयी थी।
मधु ने उससे पूछा- तुम अकेले आए हो? मिसेज नहीं आईं?
आलेख ने कहा था उसने शादी नहीं की।
मधु कुछ पलों के लिए उसपर से नज़र नहीं हटा सकी थी।
मधु ने उसे विजिटिंग कार्ड दिया और घर आने को कहा।
फिर आलेख कुछ-कुछ दिनों में उसके घर आने लगा।
मधु जो शादी के बाद हंसना भूल चुकी थी... जिसने अपने आपको सिर्फ एक बड़े अफसर की बीवी बना लिया था... आलेख के घर आने के बाद से वो फिर अपने 17 साल की उम्र में पहुंच गई थी।
वो आलेख की पसंद की चीजें बनाकर उसे खिलाती और आलेख बस मुस्कराकर खा लेता।
पहले की तरह ही आलेख अब भी मधु से ज़्यादा न बोलता मगर मधु की बेटी से उसका रिश्ता गहराता जा रहा था।
वो मधु की बेटी के लिए तोहफे लाता। उसी के साथ खेला करता। उसकी पेंटिंग बनाता। मधु की बेटी को रंगों से खेलना बहुत पसंद था।
सांची- मेरी तरह?
मधु- हां तुम्हारी तरह।
सांची- अगर कमल अंकल का नाम आलेख होता तो ये कहानी आपकी भी हो सकती थी न मां?
वो भी तो मेरे लिए तोहफे लाते हैं, मेरी पेंटिंग बनाते हैं...।
मधु- हां मगर अब तुम तुरंत जाकर मुँह धो। ट्यूशन के लिए देर हो जाएगी। अब कोई सवाल नहीं?
सांची चली जाती है। मधु उठकर अपनी अलमारी के सबसे निचले खाने से एक पुरानी किताब निकालती है। उसमें एक फूल होता है। गुलाब का फूल। मधु उसे देख ही रही होती है तभी सांची आ जाती है।
मधु किताब बन्द कर रख देती है।
सांची कपडे बदलते हुए पूछती है- अच्छा मां क्या मधु अपने हसबैंड से प्यार करती है?
मधु गुस्से से कहती है- अब अगर एक भी सवाल किया तो थप्पड़ खाओगी। चलो जाओ जल्दी सवा तीन हो गया है।
सांची गुस्सा नहीं होती। वो मां को प्यार करती है और कहती है- आज की कहानी बहुत अच्छी थी मां।
थैंक्यू।
दरवाज़े पर पहुंचकर सांची लटककर पूछती है- मां अगर मुझे कोई आलेख मिला तो तुम हमें उसके साथ जाने दोगी न?
मधु ने अपनी हंसी छिपाते हुए कहा-
हां मगर पूरी पढ़ाई ख़तम होने के बाद।
सांची सीढ़ियों पर चिल्लाती हुई भाग जाती है-
उससे पहले हम जाएंगे भी नहीं।
मधु को सांची पर बहुत प्यार आता है।
अचानक उसे याद आता है उसे बाजार जाना है। शाम को उसके पति के दोस्त आने वाले हैं खाने पर।
उसका मन करता है एक बार गुलाब को देखने का पर वो अलमारी बंद कर देती है और चल देती है बाज़ार।

Monday, September 26, 2016

तुम_और_मैं

#तीसरी_कड़ी
मैं- तुम्हें याद है जब हम पहली बार मिले थे तो कितना झगड़े थे।
तुम- हां, मगर वो सब छोड़ो। सुनो शादी के बाद न हम वसंत विहार शिफ्ट हो जाएंगे।
मैं- पहले मुझे तुम बहुत खड़ूस लगे थे।
तुम- अच्छा। वैसे 2-3 साल में डाउनपेमेंट भर का तो पैसा जमा ही हो जाएगा, नहीं?
मैं- हम्म। तुम ऐसे क्यों थे पहले।
तुम- मैं क्या बात कर रहा हूं और तुम क्या बकवास छेड़ रही हो।
मैं- अच्छा बोलो बाबा क्या है। हां इतने दिनों में डाउनपेमेंट जमा हो जाएगा।
तुम- अच्छा सुनो न, इएमआई पर गाड़ी ले लेंगे। मैं तुम्हें ड्रॉप कर दिया करूंगा।
मैं- हम्म।
तुम- तुम अपनी सैलरी से आरडी खोल लेना। बाकी खर्चा मैं देख लूंगा।
मैं- और हर साल हम लोग घूमने जाएंगे।
तुम- नहीं बहुत हो गया घूमना-फिरना। अब सेविंग करेंगे।
मैं- सुनो हम लोग शादी नहीं करते।
तुम- क्या? क्यों? तुमने कहा तुम तैयार हो। इसलिए मैंने सारे प्लान बनाए। अब इसका क्या मतलब है।
मैं- मुझे लगा था शादी के बाद हम दोनों साथ रहेंगे। ज़्यादा करीब आएंगे।
तुम- तो?
मैं- मगर शादी के बाद तुम्हारे करीब आ रहा है मकान, गाड़ी, सेविंग्स। मैं दूर जा रही हूं। हम शादी के बगैर ही ठीक हैं। साथ घूमने तो जा सकते हैं।
तुम- पागल हो गयी हो। शादी के बाद सभी प्लानिंग करते हैं। सेविंग्स से ही तो सिक्योरिटी रहती है।
मैं- हम्म।
तुम- कहां जा रही हो।
मैं- घर।
तुम- अच्छा मैं मकान नहीं खरीदूंगा। हम घर बनाएंगे। गाड़ी नहीं लूंगा। हम साथ चलेंगे। खूब घूमेंगे। बस?
मैं- हम्म। पर मेरी सैलरी आरडी में ही जाएगी। हीहीहीही।
तुम- हाहाहाहा।

तुम_और_मैं

#दूसरी_कड़ी
तुम- आयी क्यों नहीं?
मैं- कब?
तुम- जब आने वाली थीं।
मैं- मैं आयी थी, तुम मिले नहीं।
तुम- पर मैं तो वहीं था।
मैं- मुझे दिखे नहीं, मैंने आवाज़ भी लगाई थी।
तुम- हां, सुना था मैंने... जवाब देने का मन नहीं हुआ।
मैं- फिर क्यों पूछ रहे हो कि आयी क्यों नहीं?
तुम- मुझे लगा शायद पूछने से तुम दोबारा आ जाओ।
मैं- क्या तुम चाहते हो कि मैं आऊं?
तुम- नहीं, ज़रूरी नहीं है।
मैं- तुम चाहते क्या हो?
तुम- कुछ भी नहीं.. तुम क्या चाहती हो?
मैं- कि तुम कुछ चाह लो... और जो भी चाह लो, उसे पा लो।

तुम_और_मैं

एक सीरीज शुरू कर रहे हैं... कोई विषय नहीं सिर्फ कुछ संवाद हैं...
हो सके तो सुधार के लिए अपनी राय दें... सीरीज लिखने का आइडिया फेसबुक से ही आया।
तुम और मैं नाम है सीरीज का।
तुम और मैं की कोई उम्र नहीं, जेंडर नहीं, गांव नहीं, देश नहीं, भाषा नहीं, सम्बन्ध नहीं.... ये कहीं के भी हो सकते हैं। इनके बीच का रिश्ता कुछ भी हो सकता है। ये बात करते हैं, खूब बात करते हैं।
#पहली_कड़ी
तुम- कब आयी?
मैं- मैं तो यहीं थीं।
तुम-सोच रहा था तुम होती तो कैसा होता
मैं- पर मैं तो यहीं थी। तुमने मुझे पहले नहीं देखा?
तुम- नहीं.. मैं तो बस यही सोच रहा था कि तुम होती तो कैसा होता।
मैं- तुम्हारा ध्यान कहीं और था शायद।
तुम- हां मैं हमेशा यही सोचता हूँ कि तुम होती तो कैसा होता।
मैं- अगर तुम देख पाते तो जान पाते कि मैं होती तो कैसा होता।
तुम- हां... मैं जल्दी ही जान लूंगा कि तुम होती तो कैसा होता।
मैं- मैं अब जा रही हूँ...
मैं-सुना तुमने? मैं जा रही हूँ...। सुनते क्यों नहीं?
तुम- मैं कुछ सोच रहा था।
मैं- अब मुझे मत बताना कि तुम क्या सोच रहे थे...
#तुम_और_मैं

Friday, August 12, 2016

उदास हैं क्या...?

यार सैलरी इतनी कम है कि महीने का खर्च भी पूरा नहीं पड़ता, सेविंग तो दूर की बात है।
रोज़ ऑफिस जाते समय घंटों जाम में फंसते हैं, दिमाग का दही हो जाता है।
घर में बैठे-बैठे बोर हो चुके हैं , ज़िन्दगी में कोई चार्म नहीं बचा।
रोज़ का वही काम , खाना बनाओ-खाओ, कपड़े बर्तन... बस। ये भी कोई ज़िन्दगी है।
ये साली ज़िन्दगी तो घर का दाल-चावल पूरा करने में ही बीत जाएगी।
और वगैरह-वगैरह।

ज़िन्दगी की ऐसी ही शिकायतें सुनने को मिलती है आसपास। कभी सुना है किसी को कहते कि मैं बहुत खुश हूं अपनी ज़िन्दगी में या मेरे पास सब कुछ है।
किसी के पास सब कुछ हो भी नहीं सकता। अगर हो जाए तो ज़िन्दगी पूरी नहीं हो जाएगी। अधूरेपन को पूरा करने की तलाश ही तो है ज़िन्दगी।
एक दादी मिली थी कल ऑफिस जाते समय ऑटो में। उनके हाथों में खिलौने थे। ऐसे खिलौने जो शायद वो चलाना भी नहीं जानती होंगी। ले जा रही होंगी शायद अपने पोते-पोती या नातियों के लिए। बहुत पैसे नहीं थे उनके पास। उस उम्र की थीं जिस उम्र में अकेले नहीं निकलना चाहिए उन्हें। कैसे पसंद किए होंगे उन्होंने वो खिलौने। जब बच्चे खेलेंगे तो कितनी खुश होंगी वो। क्या ये ख़ुशी कम है?
हम हमेशा सोचते हैं हमारे पास क्या नहीं है... कभी नहीं सोचते क्या कुछ है...
पता है क्या है हमारे पास:
हमारे पास दो हाथ हैं, दो पैर हैं जो टूटे नहीं हैं।
हमारे पास दो आंखें, एक नाक, दो कान हैं जो अपना काम सही तरह से करते हैं।
हमारे पास दो किडनी है जो ख़राब नहीं है, फेफड़ा है जिसमें इन्फेक्शन नहीं है।
एक दिल है जिसमें कोई छेद नहीं है।
........
ये सब तब तक बहुत नॉर्मल लगता है जब तक इनमें कोई ख़राबी नहीं आती।
एक बार डॉक्टर के यहां चक्कर लगाना पड़ जाए तो ज़िन्दगी की बाकी कमियां याद नहीं रहतीं।
कुछ लोग इन सब के बाद भी खुश रहने की कोशिश करते हैं। मिलिए कभी अनाथाश्रम में रहने वाले बच्चों से जिनके पास न अपना घर है न रिश्ते। देखिए कभी उन्हें जो दो कदम बिना सहारे चल नहीं सकते। अपनी ज़िन्दगी रोशन लगेगी आपको।
कोशिश करिए कि खुश रहने के बहाने तलाशे जाएं न कि ज़िन्दगी की तकलीफों को याद कर करके फ्रस्टेट रहा जाए। आपके खुश रहने से आपके आसपास एक पॉजिटिव एनर्जी बनती है जिससे दूसरे लोग भी खुश रहते हैं। जब आपकी वजह से कोई और हंसता है तो बैंक अकाउंट में तो कोई तब्दीली नहीं आती हां सुकून ज़रूर मिलता है।
और खुश होना है?
किसी गरीब को 10 रुपये का भुट्टा दिलाइए और उसे खाते देखिए।
एक बच्चे को दो रुपये की टॉफी दिलाइए फिर उसका मुस्कराना देखिए।
किसी बुज़ुर्ग का सामान उठाकर उसके साथ 10-20 कदम चलकर देखिये।
ऑटो में गुमसुम बैठी औरत से बाहर पढ़ने-कमाई करने गए उसके बच्चों के बारे में पूछकर कर उसकी गर्व भरी बातें सुनिए।
किसी ख़ास के लिए कुछ ख़ास करिए और उसकी हंसी देखिए।

सबसे बड़ी बात इन सब कामों के लिए आपकी सैलरी का ज़्यादा होना ज़रूरी नहीं। लखपति होना ज़रूरी नहीं। ताकतवर, रौबदार होना भी ज़रूरी नहीं।

खुश रहना बहुत आसान काम है। शर्त सिर्फ इतनी है कि आप खुद खुश रहना चाहते हों। यकीन मानिए ज़िन्दगी बहुत छोटी है। कब, कौन, कहां, कैसे... साथ छोड़ जाए, नहीं पता। उदास रहने से आप न सिर्फ खुद को बल्कि अपने आसपास के लोगों को भी उदासी देते हैं सौगात में। मुझे नहीं लगता आप ऐसा चाहते होंगे।
पुराना गाना है... इस दुनिया में जीना है तो सुन लो मेरी बात गम छोड़के मनाओ रंग-रेली...।
😊👍💐
खूब मुस्कराइए... दूसरों को मुस्कराहट दीजिये...। 

Tuesday, May 24, 2016

हंसते-हंसते रोना सीखो...

स्वाभाविक है रोना... गले का रुंधना, दिल की तकलीफ, मन की कसक... सब कुछ स्वाभाविक है। मगर क्या सचमुच सभी के लिए इतना ही स्वाभाविक है।
रोने को कमज़ोरी से जोड़ा गया है, कमज़ोरी को औरतों से। औरतों को रोने की उपाधि दी गई है...। मर्द रोए तो उसे भी 'औरत' कहा जाता है।
कई मज़ाक सुने हैं इस पर...
औरतों की पलकों पर बाल्टी रखी होती है जब चाहती हैं थोड़ा सी लुढ़का कर काम बना लेती हैं।
अरे उनसे कुछ मत कहना वरना टेसुए बहा देंगी।
काम ही क्या है इनके पास, बस रो दें और इनकी बात मान ली जाएगी।
बस यही अच्छा नहीं लगता... हर बात पर रोना शुरू।
यार लड़कियों की तरह रोना मत शुरू कर देना।
रोना औरतों का काम है हम मर्दों का नहीं (फ़िल्म का डायलॉग)
और ऐसी न जाने कितनी बातें, ताने। हम हंसने, गुनगुनाने, मुस्कराने, उदास होने, प्यार करने, गुस्सा करने, चिढ़ने, जलने या किसी भी और एहसास पर इतना रिएक्ट नहीं करते। (वैसे महिलाओं के हर रिएक्शन पर हज़ारों टिप्पणियाँ हैं।)
इस पर कई शोध भी हुए हैं। माना जाता हैं उदास और दुःखी होने पर रो देने वाले मर्द बाकी मर्दों से ज़्यादा अच्छे इंसान होते हैं। ये भी कहा गया है कि रोना हमारी मानसिक सेहत के लिए अच्छा है और ज़रूरी भी।
हालांकि रोने के समय, जगह और साथ का भी अपना महत्व है। किसी अपने के सामने रोना और अजनबी से छिपकर रोना अलग-अलग एहसास देते हैं।

मुस्कराहट को किसी भी मर्ज़ के लिए सबसे अच्छी दवा और ख़ूबसूरती बढ़ाने के लिए सबसे बेहतर मेकअप माना गया है।
इसके साथ ये भी सच कि है दुःखी और उदास होने पर रो लेना दवा जैसा है और मन की ख़ूबसूरती के लिए उसका साफ़ होना ज़रूरी है जो रोने से हो सकता है।
इस पोस्ट का मतलब ये बिलकुल नहीं कि रोना ही हर समस्या का हल है। मगर रोना बुरा नहीं है और कभी कभी ज़रूरी है।

याद कीजिए पिछली बार कब रोए थे आप (खासकर पुरुष)। अगर ये वक़्त छह महीने से ज़्यादा हो चुका है तो...
खैर रोते हुए चेहरों को दुनिया या तो देखना नहीं चाहती या उस पर हंसती है। हंसते हुए चेहरों की मांग ज़्यादा है...

इसलिए मुस्कराते रहिए।

Thursday, April 23, 2015

सही नहीं है...

एक हार... बड़ी निराशा... खालीपन... गहरा आक्रोश और अगले दिन से नाउम्मीदी।

क्या यही वजह काफी नहीं है फांसी पर लटक जाने के लिए, तीन मंज़िला इमारत से कूद जाने के लिए? कलाई की नस काट लेने या खुद को घातक इंजेक्शन लगा लेने के लिए?
पिछले एक महीने में मेरे आसपास चार आत्महत्या की गईं।
(अब तक की खबर के मुताबिक)
पहला-नवीं क्लास के पहले दिन अपने स्कूल की छत से कूदकर राहुल ने जान दे दी। दीवार पर लिख गया 'वेटिंग फॉर यू जूलियट'। अपने पीछे छोड़ गया कई सवाल। मां-बाप और भाई चौराहों पर तख़्ती लेकर बैठे हैं कि मेरा बेटा ख़ुदकुशी नहीं कर सकता। अज्ञात छात्रों पर हत्या का आरोप भी लग गया।
दूसरा-मेरी ही सीनियर अंशु सचदेवा ने अपने घर में फांसी लगा ली। रोका की रस्म हो चुकी थी। होने वाले जीवनसाथी का साथ न होना वजह कही जा रही है। अंशु की बहन ने बताया कि आखिरी मैसेज अंशु ने अपने ब्वॉयफ्रेंड को किया था, 'आई एम गोइंग'।
तीसरा-एम्स की एक डॉक्टर ने खुद को घातक इंजेक्शन देकर ख़ुदकुशी कर ली क्योंकि उनका पति गे था। घटना के एक दिन पहले डॉक्टर ने अपनी फेसबुक वॉल पर पति के लिए प्यार को स्वीकार करते हुए अपने एहसास बांटे।
चौथा-'आप' की रैली में एक किसान ने हज़ारों लोगों के सामने अपनी जान दे दी और एक पर्ची में अपनी बर्बादी की दास्तान के साथ सवाल छोड़ गया कि इस बर्बादी के साथ मैं घर कैसे लौटूं...।
राहुल के मां-बाप दोनों काम करते हैं।एग्जाम के बाद वो अगली क्लास के पहले दिन स्कूल जा रहा होगा। जांच में उसके बैग से टिफिन, पानी की बोतल और एक केला निकला था। शायद घर से निकलते वक़्त मां ने कहा होगा टिफिन खतम करके आना और केला रास्ते में ही खा लेना। शायद मां मुस्कराई भी हो कि उनका बेटा 9वीं में चला गया...।
अंशु घटना वाले दिन अपनी बहन के घर से खाना खाकर आईं थीं। क्या अंशु को पता था कि ये उसका आखिरी कौर था...। शायद उस रात अंशु के पिता शादी के लिए वेन्यू सोच रहे हों।शायद मां साड़ियों की गिनती कर रही हो।

शायद के साथ लिखे वाक्य सिर्फ मेरी कोरी कल्पना है। सच में मैं सोचकर दंग रह जाती हूँ कि किस तरह का अवसाद पनपता होगा... कितनी तीव्र होती होगी मरकर मिट जाने की इच्छा... किस कदर आक्रोश से भरा हुआ मन सिर्फ एक वजह के लिए।
उस एक वजह में इंसान जोड़ लेता है कई और वजहें टूटी-फूटी भी।
एक डॉक्टर जिसने कई साल पढ़ाई करके डिग्री हासिल की। उसने जान दे दी क्योंकि उसका पति गे था?
एक लड़की जो खुद इतने अच्छे काम से जुड़ी थी उसने जान दे दी उस शख्स के लिए जिसने उसकी क़द्र ही नहीं की?
एक किसान झूल गया जिसके पास खेती करने का हुनर हमेशा रहने वाला था?
एक लड़का कूद गया जो अभी ज़िन्दगी की रेस में शामिल ही नहीं हुआ था?

सही नहीं है....।

अनुपम खेर ने एक शो में कहा था कि जब आपको लगे कि सब कुछ ख़त्म हो गया है... समझो वहीँ से एक नई शुरुआत है। क्योंकि अब और कुछ ख़त्म होने को बचा ही नहीं है। अब सिर्फ कुछ बन सकता है।

सच है कि ज्ञान देना आसान है... बातें करना आसान है पर सच ये भी है कि अगर ये बातें खुद से कर ली जाएं तो ख़ुदकुशी की नौबत न आए।
किसी ने स्टेटस लिखा था कि 'ऐसा क्या था जो वो कह न पाई, क्यों नहीं कहा और हम सिर्फ नाम के दोस्त साबित हुए...वगैरह वगैरह'।

मुझे लगता है हम खुद से कह नहीं पाते... खुद से बात नहीं कर पाते... किसी और के कहने से ज़्यादा सुकून तब मिल सकता है जब हम खुद से कहे कि क्या हुआ जो ये नहीं हो सका... रास्ते और भी हैं।
रात लम्बी सही पर सुबह तो आनी ही है।
उस सुबह का इंतज़ार ही अगर ज़िन्दगी बन जाए तो क्या बुरा है।

कोई तो होगा जिसे अब भी मेरी इस दुनिया में मौजूदगी चाहिए होगी।बिना मेरे स्टेटस पढ़े, बिना लाइक-कमेंट के...। बिना गुड मॉर्निंग मैसेज और दिन में चार कॉल किए.... कोई तो होगा जो मेरे बारे में कभी सोचता होगा। शायद किसी की दुआओं में अब भी मेरा ज़िक्र हो। मासूम दुआ के लिए ही सही क्या हम जी नहीं सकते? वो मां-बाप, भाई-बहन, कोई छूटा दोस्त, कोई रूठा साथी कोई भी हो सकता है।

आत्महत्या की खबर निराशा भरती है... मरता एक शख्स है और कई और को इस तरफ एक कदम और आगे बढ़ा देता है... कई लोगों को ज़िन्दगी की कीमत भी समझा देता है पर.....

सही नहीं है।

ज़रा सोचिए कोई एक तो होगा जो आपके चले जाने पर फूट-फूट कर रोएगा... जिसे आप कभी उदास भी नहीं देखना चाहते।चार मिनट के लिए सही... चार घण्टे के लिए सही...चार दिन के लिए सही... चार महीने के लिए सही। मत रुलाना उसे।
बस एक वजह ढूंढ लेना जीने के लिए।

किसी और से करें न करें... खुद से करिए... एक पूरी ज़िन्दगी है बतियाने के लिए।
ज़िन्दगी से बातें करिए।

आत्महत्या सही नहीं है।

Thursday, April 9, 2015

ज़रूरी है ज़रूरत...

वो जिससे अभी कुछ दिन पहले मुलाकात हुई। बात हुई। अचानक उससे इतनी नजदीकियां क्यों है? या वो जिससे कई साल का रिश्ता था... अचानक उससे फासले क्यों हैं? क्या है जो समय के साथ एक बच्चे और उसकी मां के बीच के प्यार को बदल देता है? और क्या है वो जो सबसे प्यारे दोस्त को बीते कल की एक कहानी बना देता है?
इन सवालों से कोई बचा रह गया है क्या? क्या कभी ऐसा सवाल आपके मन में नहीं आया?
आया है.... ज़रूर आया है और हर बार आपने बहाना बनाया है...। लोग बदल जाते हैं... हालात बदल जाते हैं... रिश्ते बदल जाते हैं। क्यों... इसी तरह समझाया है न खुद को।
मुझे लगता है कि बदलती है तो सिर्फ ज़रूरत।
ये ज़रूरत बड़ी चीज़ है। किसी भी रिश्ते के लिए ऑक्सीजन है। ये ख़त्म तो रिश्ता भी ख़त्म। खास बात ये है कि ऑक्सीजन की तरह ये भी एकदम से ख़त्म नहीं होती। धीरे-धीरे शुरू होकर धीरे-धीरे ही ख़त्म होती है।
कैसे जन्म लेता है कोई रिश्ता...?
खासकर वो रिश्ते जो हमें विरासत में नहीं मिलते।
एक ज़रूरत से....। ज़रूरत उस कान की जो सुने हमें। उन पैरों की जो साथ चले।
ज़िन्दगी के खालीपन को भरने की या जो कुछ भरा हुआ है मन में उसे निकालने की ज़रूरत।
जहां से ये ज़रूरत पूरी होती दिखी वहां बन गया रिश्ता। फिर....। फिर ज़रूरत पूरी हो गई।
जब कुछ पूरा हो जाता है तब वो अपनी अंतिम अवस्था में आ जाता है।
ज़रूरत पूरी यानी ख़त्म हो रही है। ये बात और है कि दो लोगों के बीच के रिश्ते में किसी की ज़रूरत पहले ख़त्म हो जाए और किसी की कुछ देर बाद। पर जब एक की ख़त्म हो जाती है तो ऑक्सीजन कम हो जाता है।
फिर दूसरे की ज़रूरत को ख़त्म होना पड़ता है।
.... चांद पूरा होने के बाद फिर शुरू होता है।
ज़रूरत ख़त्म होने के बाद फिर शुरू होती है... नए कलेवर में। फिर एक नए रिश्ते का जन्म।
.... लेकिन हम किसी और जाल में फंस जाते हैं। झगड़ते हैं.... तुम बदल गए... वो बदल गया... रिश्ता बदल गया। हालांकि ये भी बेहद ज़रूरी है।
सोचिए एक दिन आपका करीबी कहे.... यार देखो... मुझे लगता है ज़रूरत जो है न... वो ख़त्म हो रही है तो अब यहीं स्टॉप लगा लो।
अजीब लगेगा न सुनने में।
इतना प्रैक्टिकल चलेगा नहीं।
जब तक चार सेंटी शायरियां और तीन-चार रफ़ी साहब के गाने न सुन ले तब तक मज़ा कहां....।
खैर.... ज़रूरी है ज़रूरत .... बाकी बदलना तो सब कुछ ही है एक दिन।

Monday, March 30, 2015

अनजाना सफ़र...

मंज़िल साफ़ न हो तो रास्ते ज़्यादा ख़ूबसूरत हो जाते हैं...। मेरे अनजाने सफ़र ने यही सिखाया। हर रोज़ ऑफिस जाना और कभी स्टोरी के लिए वेन्यू तलाशना...। हर बार मंज़िल साफ़... उसी बोर्ड को तलाशती नज़र...।
मगर ये सफ़र कुछ अलग था... घर से निकलते वक़्त नहीं पता था कहां जाना है। चारबाग के लिए ऑटो में बैठकर सोचने की कोशिश की कि कहां जाया जाए पर दिमाग ब्लैंक।
चारबाग में ऑटो से उतरते ही 31 नम्बर बस दिखी...। लगा दी दौड़। उस वक़्त भी नहीं पता था जाना कहां है। बस उसी रास्ते पर बढ़ रही थी जिधर रोज़ जाना होता है पर ये क्या... आज कई नई होर्डिंग दिखी। कल तो नहीं थी... या थी और मुझे दिखी नहीं....। हवा तेज़ी से मेरे चेहरे को ठंडा कर रही थी। बस्स्स यही चाहिए था...। हां सच में हवा से चेहरा ही ठंडा करना था। ये क्या फुहारें भी पड़ने लगी...। बहुत धीमी। वो सड़क पार  सब्जी सजाकर बैठी औरत हाथों की उंगलियां मोड़ते हुए क्या सोच रही होगी? शायद फुहारें उसे डरा रही होंगी। अगर तेज़ हो गईं तो ये 10 किलो सब्जी कहाँ सजाएगी।
हां टिकट टिकट...
कहां जाना है? मेरे बगल वाली लड़की से कंडक्टर ने पुछा।
एमएसटी है।
इतनी देर में मैं समझ चुकी थी कि बस का लास्ट स्टॉपेज आईआईएम है।
मैंने बोला, आईआईएम।
पता नहीं क्यों कुछ अजीब लगा बोलने में। कहीं वो पूछ बैठे आईआईएम क्यों जाना है तो?
खैर आज हुसैनगंज चौराहा कुछ नया सा नहीं लग रहा...? और ये स्कूल रिक्शा चलाने वाले भईया जी...झुण्ड बनाकर क्या बतिया रहे हैं? शायद ये कि दो दिन बाद पहली तारीख़ आने वाली है। बर्लिंगटन आज ज़्यादा साफ़ दिख रहा है। विधानभवन से गुज़रते समय दिल्ली की वो सैर याद आ गई जब करुणा के साथ दिन भर का पास बनवाया था और हर बस स्टॉप पर हरी वाली बस का इंतज़ार किया था। आज बस इलाहबाद बैंक से मुड़ी नहीं... चलो रोज़ वाली सड़क ख़त्म हुई। मेरे बगल वाली सीट पर बार बार लड़की बदल जाती है... पता भी नहीं चलता। इस बार नेशनल कॉलेज की स्टूडेंट बैठी है। सामने किसी कॉलेज की लड़कियों का ग्रुप...। सब म्यूजिक पर बात कर रही है.... शकीरा से लेकर ए आर रहमान और अब पंजाबी गाने पर पहुंच गईं। दूसरे स्टॉप पर मेरे बगल बैठी स्टूडेंट की दोस्त भी चढ़ी। दो की सीट पर तीन एडजस्ट हो गए। फोन पर वो किसी को जगाने की कोशिश कर रही थी। 'कॉलेज जाना है... या आज भी गोला... चलो उठो'। अरे बस अलीगंज पहुंच गई। अगर इधर ही आना था तो बस क्यों पकड़ी...। अमीनाबाद से आते पर मुझे तो चेहरा ठंडा करना था न... बताया तो। अच्छा ये है आंचलिक विज्ञान नगरी...। यहां आना है। इंजीनियरिंग कॉलेज चौराहा आ गया। बस लगभग खाली हो चुकी है। हां याद आया... नुक्कड़ नाटक के लिए इधर से ही गए थे। सामने बोर्ड लगा है सीतापुर... दिल्ली... कहां जाना है? बस एकदम खाली हो गई। ड्राइवर, कंडक्टर और मैं। अनजाना सफ़र.... कुछ डर लगना तो वाज़िब है क्योंकि डर सबको लगता है, गला सबका सूखता है। कंडक्टर ने फिर पूछा जाना कहां है?
मैंने कहा, आईआईएम।
आईआईएम में कहां?
बस आईआईएम।
एक आश्रम है... वहां तो नहीं जाना?
हां हां वहीं जाना है। आश्रम जाना है।
ठीक है... यहीं उतर जाइए...। आगे गेट है... गेट से बाएं।
...........................
 पूरे सफ़र में यहां तक का सफ़र ही खास था....। पता है क्यों?
क्योंकि यहां तक का सफ़र ही अनजाना था...। अब तो लौटना होगा।
आईआईएम के गेट के अंदर जाते ही जेएनयू की याद आई। सामने दिखती लम्बी और सूनी सड़क। अगल-बगल पेड़। बीच-बीच में गुज़रती बाइक। मेरे चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी... अपने आप।
 आश्रम का गेट दिखा पर सामने दिख रही कहीं न ख़त्म होने वाली सड़क ज़्यादा रोमांचित कर रही थी। मेरे करीबी जानते हैं कि मैं पैदल ज़्यादा नहीं चलती... पर यहां दिल यही कर रहा था कि ये सड़क कभी ख़त्म न हो।
आगे लिखा था... प्रबंध नगर आपका स्वागत करता है।
आईआईएम आ गया। बड़ा सा गेट... अंदर जाने को मिलेगा... शायद नहीं। हमारे आईआईएमसी में तो कोई भी आ जाता है। सोचा यहीं से लौट चले पर सामने मोड़ के बाद न दिखने वाली सड़क ने अपनी तरफ खीँच लिया। आगे एक खुशबू थी... बिलकुल रुदौली जैसी। गोबर के कण्डे की... कच्चे दूध की... भूसे की.... खेतों की...। वाह यही तो है मेरे सपनों की जगह। हां चेहरा ठंडा करने के अलावा यही खुशबू ढूंढने तो निकले थे। मेरे पैरों में कोई थकान नहीं थी। ट्रैक्टर की फोटो खींचते समय कई लोग घूर रहे थे... पर मुझे घूरने पर बुरा नहीं लग रहा था। गांव के लोगों की आँखों में गन्दगी नहीं जिज्ञासा दिखती है। कौन है ये लड़की। अकेले यहां कैसे। फोटो क्यों खीँच रही है। ढेरों सवाल।
कुछ दूर और चलने के बाद मुझे लगा अब लौट जाना चाहिए क्योंकि मुझे आसानी से रास्ते याद नहीं होते...। लौटने के लिए मुड़ते वक़्त मुझे सफ़र के ख़त्म होने की कसक थी। क्योंकि सफ़र तो अभी बचा था पर अनजाना सफ़र ख़त्म हो रहा था। लौटकर मैंने आईआईएम देखा। अंदर जाने को नहीं मिला। वहां से आश्रम। आश्रम में झूला। रसोइये से बातचीत। नंगे पैर छलांग लगाती सोनम से थोड़ी गप्प। गायत्री परिवार के मंदिर में माइक पर चिल्लाते महानुभाव और फिर बैटरी वाली गाड़ी से वापसी। आगे का सफ़र... सफ़र था। अनजाना सफ़र नहीं।
लखनऊ की सड़कों पर मैंने पटना, जयपुर और अमृत सर की सड़कों को पाया। मेरे सारे सफ़र अनजाने सफ़र से जुड़ गए।
सफ़र में अकेला होना और अकेले सफ़र करना अलग बातें हैं। अकेले सफ़र करने में जितनी नई चीज़ें आप जान सकते हैं किसी के साथ होने पर नहीं। मैंने अपने सफ़र में बहुत कुछ नया जाना। खबरों में पढ़े जाने वाले कई स्कूलों के नाम... होर्डिंग में देखे।
बात वहीं ख़त्म होती है कि मंज़िल साफ़ न हो तो रास्ते ज़्यादा ख़ूबसूरत हो जाते हैं।
बाकी चलना ज़रूरी है। चलते रहिए।

Wednesday, May 1, 2013

ख़ामोशी...


दिन भर के बाद कमरे का एकाकीपन भी अच्छा है,
इस सन्नाटे में पंखा भी चुप ही अच्छा लगता है,
बेआवाज़ भाषा गूंजती है दीवारों में,
खुद को सुनता है शख्स, यादों और सपनों के साथ,
कई बार नींद को पटखनी भी देता है,
कई बार आंसू परेशां भी करते हैं,
मगर ये हिस्सा है उस एकाकीपन का, 
जो वो चाहता है दिनभर के बाद अपने कमरे में ...
- शुभी चंचल

Friday, February 15, 2013

गिद्धों का शिकार...

आने वाले तूफानों से अनजान,
फुदकती है वो घर के आँगन में,
हँसती है, हँसाती  है,
गूंजती है उसकी आवाज़,
मोहल्ले की आखिरी गली तक,
तूफान से पहले की आंधी आती है जब,
सहम तो जाती है वो,
मगर फिर खुद ही संभल भी जाती है,
दूर कहीं उठ रही लहरों को भाप नहीं पाती,
सीख लेती है ज़िन्दगी के हुनर कई,
अपने हुनर का लोहा भी मनवाती है,
मगर तूफान जो आना था, रुकता नहीं,
आता है वो अपने पूरे आवेग से,
दुनिया भर का गुस्सा लिए,
वो डर जाती है, सिकुड़ने सी लगती है
उसकी आवाज़ और बाहें एक साथ,
उसे है प्यार अपने पंखों से,
खुले नीले आसमान से,
मगर वो घिर चुकी है ...
फुदकने, हँसने, हंसाने वाली चिड़िया,
हो जाती है गिद्धों का शिकार ...
-शुभी चंचल


Monday, February 4, 2013

अच्छा लगता है...

मुझे अच्छा लगता है,
डोर से छूटी पतंग का खुद मुकाम चुनना 
शाम का वो ढलता-उदास सूरज,
मुझे अच्छी लगती है,
नल से गिरने वाली आखिरी धार,
दुकान में बची आखिरी किताब,
मुझे अच्छा लगता है,
बर्तन में बचा वो आखिरी कौर,
रजाई में लगा धागे का आखिरी टांका,
मुझे ये सब अच्छा लगता है,
क्योंकि ये सब ख़त्म हो रहे हैं,
अपनी आखिरी सांसों के साथ,
मुझे अच्छी लगती है, अपनी ख़ुशी, इच्छाएं और उम्मीद ...
-शुभी चंचल 

Saturday, December 8, 2012

... तो क्या बुरा है ???


वर्तिका नंदा मैम की कविताओं से प्रेरित और उन बेटियों, बहनों और पत्नियों को समर्पित जिनका जीवन पुरुषों के बनाये गए नियम कायदों पर चलता है ....



जोर से हँस लूं तो क्या बुरा है,
मैं भी मुस्कुरा लूं तो क्या बुरा है,
ज़िन्दगी में गम-आंसुओं की कमी तो नहीं,
एक दिन मगर सुस्ता लूं तो क्या बुरा है ....

एक आस कर लूं पूरी,
भुला दूं अपनी मजबूरी,
तेज़ आवाज़ में बोल दूं तो,
एक दिन मेज पर चढ़कर गुनगुना लूं तो क्या बुरा है ...

ऊंची मंजिल पर चढ़कर देखूं शहर सारा,
झरोखे से देखूं सपना कोई प्यारा,
घर-बाहर के काम में बाबा को राय दूं तो,
एक दिन अपनी भी कह दूं तो क्या बुरा है ...

साइकिल चलाऊं खेतों में शबनम और पूजा के साथ,
न बनाऊं एक दिन चोखा-रोटी और दाल-भात,
मैं भी देर से घर आऊं तो,
एक दिन गलियां भूल जाऊं तो क्या बुरा है ...

देखूं अफसर बनने का सपना,
साथ दे जो कोई अपना,
मैं भी कोई रौब दिखाऊँ तो,
एक दिन मैं भी जी जाऊं तो क्या बुरा है ...

---शुभी चंचल 

Saturday, July 28, 2012

हाँ मगर देश बढ़ रहा है...

सब कुछ तो वैसा है प्यारे,
हाँ मगर देश बढ़ रहा है...
बेटियां कोख में मरती हैं,
माँ ही क़त्ल करती है
हाँ मगर देश बढ़ रहा है...
बेटे को मिलता मौके पर मौका,
बेटियां चलाए चूल्हा चौका,
हाँ मगर देश बढ़ रहा है...
अमीर का दस-दस मकान खड़ा है,
गरीब के छप्पर में छेद बड़ा है,
हाँ मगर देश बढ़ रहा है...
बेटा लाएगा पैसा चार,
बेटी देखेगी घर बार,
हाँ मगर देश बढ़ रहा है...
औरत शोभा चार दीवारी की,
ज़रुरत नहीं हिस्सेदारी की,
हाँ मगर देश बढ़ रहा है...
फैसला होगा सब साहब जी का,
शक्कर तेज़ या नमक है फीका,
हाँ मगर देश बढ़ रहा है...
लड़की के नाम है सीख का पर्चा,
लड़के पर बस पैसा खर्चा,
हाँ मगर देश बढ़ रहा है...
-- शुभी चंचल

Thursday, June 14, 2012

करुना के लिए


IIMC ने बहुत कुछ दिया..... जिसे गिना नहीं जा सकता.... उसमें से ही है कई अच्छे दोस्त...... उन दोस्तों में से एक .... करुना जी... उनके लिए लिखी गई ये कविता... उनसे बिछड़ते समय ....

वो आई और घुल गई ज़िन्दगी में,
जैसे रंग कोई घुल जाए पानी में,
बदल जाए पानी भी,
और बदला ही रहे,
अचानक आई धूप,
उड़ने लगा रंग भी, पानी भी,
उड़ रहा है धीरे-धीरे,
उड़ जाएगा सामने ही,
रह जायेंगे निशां बाकी,
उन निशानों के साथ यादें भी,
उन रंगीन पानी की तसवीरें.... और साथ,
पानी और रंग का....

- शुभी चंचल

Friday, April 27, 2012

पलटते कदम...


आठ महीने पहले दिल्ली की तरफ बढ़े कदम आज पलट रहें है... फिर उन्ही गलियों में, उन्हीं रास्तों पर जहाँ से गुज़रते हुए अपनी मंज़िल तय की थी और उस मंज़िल को पाने का रास्ता दिल्ली माना था. कुदरत के किसी करिश्मे की तरह मेरा दिल्ली आना, आठ महीने पर्वत, जंगलों और तरह तरह के लोगों के बीच रहना और उनमें इतना रम जाना कि खुद को भूल जाना या शायद खुद के और करीब आ जाना ... ये सब ज़िन्दगी भर का किस्सा हो चला है... एक बड़े अख़बार की नौकरी के साथ एक बार फिर तहजीबों के शहर लखनऊ का रुख़ कर रही हूँ... इन आठ महीनों में इस अजनबी शहर ने बहुत कुछ दिया है और बदले में लिए है  मेरे कुछ भ्रम, मेरी अधपकी सोच और दुनियादारी की नासमझी... निखारे है मेरे अल्फाज़, मेरा लहज़ा और दिया है नया नज़रिया...
अब देखना है... ज़िन्दगी और क्या क्या रंग दिखाती है... अपने शहर में... क्यूंकि भले ही शहर वही है लेकिन अब तक वो मेरे लिए जन्मभूमि थी..और अब होगी कर्मभूमि.... शहर को और करीब से जानने का मौका मिल रहा है... अपनी नयी आँखों से...  
-शुभी चंचल 

Monday, April 23, 2012

...वो वक़्त वो घड़ियाँ


हर वक़्त याद आती है वो घड़ियाँ,
पर वो वक़्त वो घड़ियाँ अब नहीं रही,
जब जल्दी में भूलती थी कलम अपनी,
और लिखते समय बैग खंगालती थी,
जब चढ़ते हुए सीढ़ी खोजती थी एक चेहरा,
और दिखने पर मुस्कुरा देती थी,
हर वक़्त याद आती है वो घड़ियाँ,
पर वो वक़्त वो घड़ियाँ अब नहीं रही,
जब करती थी टन-टन घंटी का इंतज़ार,
फिर जल्दी से डिब्बे खाने के खोल देती थी,
जब खाली घंटे में भागती थी बतियाने को,
और वो सारे राज़ अपने बोल देती थी,
जब उनकी ख़ुशी के लिए दुआ में हाथ उठाते थे,
और रब से बात करते-करते रो देती थी,
हर वक़्त याद आती है वो घड़ियाँ,
पर वो वक़्त वो घड़ियाँ अब नहीं रही,
जब छुट्टी होना वक़्त होता था बिछड़ने का,
और दोस्त की हँसी ठेले से मोल लेती थी,
हर वक़्त याद आती है वो घड़ियाँ,
पर वो वक़्त वो घड़ियाँ अब नहीं रही...
-शुभी चंचल