Aagaaz.... nayi kalam se...

Aagaaz.... nayi kalam se...
Kya likhun...???

Saturday, October 8, 2016

गुलाब

मेरी पहली कहानी--

सांची की आंखें झपकने लगी थीं। बहुत देर से मां बाल सहला रही थी पर वो सोना नहीं चाहती थी। गुस्सा आ रहा था उसे।
उसने मां का हाथ झटक दिया।
थोड़ा गुस्सा और आधी रोने जैसी आवाज़ में बोली- तुम अब तक हमें बच्चा समझती हो। हम कोई छोटे बच्चे नहीं हैं।
मधु ने तिरछी मुस्कान के साथ कहा- हां मेरी बिटिया तो बहुत बड़ी हो गयी है। अब वो स्कूल से अकेले आ भी जाती है।
सांची की आवाज़ ठीक हो गई थी और नाराज़गी में कई सवाल घुल गये थे।
उठकर बैठ गयी और बोली- तो तुम हमेशा हमें राजकुमारियों की कहानी क्यों सुनाती हो। मुझसे बड़ों की तरह बात क्यों नहीं करती? तुम ही तो कहती हो बेटी बड़ी होकर दोस्त बन जाती है। तुम्हारा तो कोई दोस्त भी नहीं।
मधु अपनी 13 साल की बेटी को बड़ा होते देख रही थी।
सांची ने इस बार मिमियाते हुए कहा- मां, कोई बड़ों वाली कहानी सुनाओ न। सुनाओ न। प्लीज़।
मधु ने सख्ती से कहा- दो बज रहे हैं। एक घण्टे बाद तुम्हें ट्यूशन जाना है। थोड़ी देर सो लो।
सांची ने फिर कहा- हमें नींद नहीं आ रही। सुनाओ न मां प्लीज़।
मधु को लगा सांची नहीं मानेगी।
वो कुछ सोचने लगी।
कुछ देर के लिए कमरे में सिर्फ पंखे की आवाज़ सुनाई दे रही थी।
सांची सोच रही थी कि मां उसके लिए कोई कहानी याद कर रही है पर अब उसका सब्र जवाब दे गया।
वो मां पर लद गयी।
मां सुनाओगी?
मधु ने लंबी सांस ली जैसे किसी सफर से लौटी हो और कहा- अच्छा लेट, सुनाती हूं।
सांची- हूं।
मधु में कहानी शुरू की।
दूर के गांव में एक लड़की थी, मधु।
सांची तपाक से बोली- मधु तो तुम हो।
मधु ने उसे डांटा- हां मैं हूं। वो भी थी। तुम बीच में बोलोगी तो कोई कहानी नहीं सुनाएंगे।
सांची- अच्छा नहीं मां, अब नहीं बोलेंगे। सुनाओ न।
मधु- तो दूर के गांव में एक लड़की थी मधु। 17 साल की।
सांची- हमसे चार साल बड़ी न मां।
मधु ने उसे घूरा और सिर हिलाया।
वो दसवीं में पढ़ती थी। बहुत होनहार। सारे सब्जेक्ट में अव्वल रहती थी। बस उसे आर्ट बनानी नहीं आती थी। वैसे तो उसने साइंस ले रखी थी लेकिन उसके स्कूल में आर्ट ज़रूरी सब्जेक्ट था।
उसे हमेशा आर्ट की परीक्षा में फेल हो जाने का डर सताया करता था।
सांची ने कहा- फिर?
मधु ने उसे चिपका लिया और बोली फिर... उसे एक दोस्त मिला।
सांची उठकर बैठ गई---हां और उस दोस्त ने मधु की मदद की और वो पास हो गयी। इसलिए हमें भी अपने दोस्तों की मदद करनी चाहिए। यही न। नहीं सुननी कहानी।
मधु- नहीं मेरा बच्चा, मेरे लाल... सुनो तो आगे।
अगर कहानी ख़त्म होने के बाद न अच्छी लगे तो कट्टी कर लेना। बस?
सांची फिर मां की साड़ी पकड़ कर लेट गयी।
तो मधु को एक दोस्त मिला। उसकी आर्ट बहुत सुंदर थी। वो बहुत शांत रहता था। सारे सब्जेक्ट में पीछे बस आर्ट में अव्वल। हमेशा डांट खाता। चुपचाप।
उसका कोई दोस्त नहीं था। मधु ने उसे दोस्त बना लिया। मधु उसे बाकी सब्जेक्ट में मदद करती और वो हर समय कोई न कोई पेंटिंग बनाता रहता।
सांची- उसका नाम क्या था मां।
मधु- आलेख।
नाम लेकर मधु शांत हो गयी।
सांची- फिर क्या हुआ मां?
समय ऐसे ही बीत रहा था। आलेख रोज़ नयी पेंटिंग बनाता और मधु को दिखाता। अब वो मुस्कराने लगा था लेकिन सिर्फ मधु के सामने।
मधु उसकी पेंटिंग में डूब सी जाती थी।
वो कभी शाम का दृश्य बनाता कभी कोई लंबी वीरानी सड़क।
सांची- वीरानी?
मधु- मतलब जहाँ कोई इंसान न हो। खाली सड़क।
उसकी पेंटिंग में उदासी रहती। सैडनेस।
अब मधु को भी आर्ट अच्छी लगने लगी। आलेख ने उसे कुछ डिजाइन दिए और उनकी प्रैक्टिस करने को बोला।
मधु उन्हें बनाने लगी थी।
आलेख घर से कभी टिफिन नहीं लाता।
मधु उसे अपने टिफिन से खाने की ज़िद करती। काफी मना करने के बाद अब वो खाने लगा था। मधु उसे बात-बात पर छेड़ती और वो बस मुस्करा देता।
मधु एक सपना जीने लगी थी। उसे सब कुछ अच्छा लगने था। खूब मन लगाकर पढ़ती थी वो। उसके सामने सपनों की झड़ी लग गई थी।
उन सपनों में वो रोज़ नए रंग भरती और हां उन सारे सपनों में आलेख उसके साथ रहता। वैसा ही मुस्कराता, कैनवस में रंग भरता... मगर उदासियों में नहीं खुशियों में।
परीक्षाएं पास आ गईं थी मगर अब मधु को किसी बात का कोई डर नहीं था। वो बस चाहती थी कि आलेख अच्छे नम्बरों से पास हो जाए। वो सारे ज़रूरी सवाल उसे याद करने को कहती।
आलेख भी पूरी शिद्दत से उन्हें याद करता।
परीक्षाएं शुरू हो गईं। अब मधु और आलेख के पास ज़्यादा समय होता साथ बिताने के लिए।
एग्जाम के बाद वो लोग स्कूल के पीछे वाले बाग़ में चले जाते। मधु आलेख से पेपर में आए सवालों के जवाब पूछती। गलत होने पर गुस्सा करती और सही होने पर मुस्कराकर शाबाश कह देती।
इसके बाद बस मधु बोलती रहती... आलेख उसे सुनता रहता।
घर की बातें, बाबा की नसीहतें, मां की डांट सब बताती। आलेख हां, अच्छा कहकर सब सुनता रहता।
सांची- क्या वो दोनों एक दूसरे को प्यार करते थे?
मधु- तुम्हें पता है प्यार क्या होता है?
सांची- हां, अब हम बड़े हो गए हैं न मां।
मधु- हां लेकिन वो मधु 17 साल में भी प्यार को नहीं जानती थी। उसे बस इतना पता था कि आलेख के साथ रहना उसे अच्छा लगता था।
सांची- वो तो बहुत बच्ची थी।
मधु ने सांची का सिर सहलाया और कहा हां।
रिजल्ट आया। मधु फर्स्ट डिवीज़न पास हुई और आलेख सेकंड डिवीज़न।
मगर दोनों खुश थे।
उस दिन आलेख ने मधु को एक फूल दिया। गुलाब का फूल।
और परीक्षा में मदद करने के लिए शुक्रिया कहा।
उस दिन पहली बार मधु को शरमाने का मतलब समझ आया।
इसके बाद दोनों नहीं मिले।
मधु की मां उसे लेकर नानी के घर चली गयी।
तब फ़ोन- मोबाइल सबके घर नहीं होते थे।
हर बार नानी के घर में उधम मचाने वाली मधु इस बार बहुत उदास थी। उसका मन ही नहीं लगता था।
वापस आने के बाद उसे आलेख से मिलने की जल्दी थी लेकिन उसके घर के पास रहने वाले दूसरे लड़के ने मधु को बताया कि आलेख शहर चला गया है आगे की पढ़ाई करने।
मधु को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वो कैसे आलेख से बात करे, मिले।
उसने कई बार सोचा कि उसके घर जाए और शहर का पता ले ले। पते पर वो चिट्ठी लिख सकती थी।
लेकिन उसकी हिम्मत न पड़ी।
क्या कहेगी वो आलेख की मां से... उसकी अपनी मां क्या सोचेगी... बाबा ने देख लिया तो।
मधु की हंसी कहीं गुम हो गयी थी। वो बस आलेख की निशानी उस गुलाब के फूल से बतियाती।
अब उसका कोई दोस्त नहीं था।
इंटर में भी उसने साइंस ली।
जैसे-तैसे इंटर बीत रहा था। उसे लगा शायद इंटर के बाद आलेख आएगा।
एक बार ही सही, अपने घर वालों से मिलने तो ज़रूर आएगा।
लेकिन वो नहीं आया।
इंटर की परीक्षाएं ख़त्म हो गईं।
छुट्टियां आ गईं।
मधु और पढ़ना चाहती थी। शहर जाना चाहती थी। मगर उसके माँ-बाबा ने उसके लिए कुछ और सोच लिया था।
गांव में उस समय लड़कियों की जल्दी शादी हो जाया करती थी।
सांची ने उदास होकर कहा- ओह नो.... तो क्या उसकी शादी हो गयी?
उसने अपने मां- पापा को बोला क्यों नहीं कि वो आलेख को प्यार करती है।
मधु हंसते हुए- क्योंकि वो पगली अब भी उस प्यार को नहीं समझी थी।
सांची- फिर?
मधु- फिर क्या... कहानी ख़तम।
सांची-नहीं मां आगे भी तो कुछ हुआ होगा न?
हो सकता है एन शादी के दिन बाइक पर बैठकर आलेख आ गया हो और उसे भगा ले गया हो।
या फिर आलेख ने ही उसके माँ-पापा से शादी की बात कर ली हो।
मधु हंस पड़ी। उसकी आँखों में नमी थी। उसने सांची को गले लगा लिया। उसके माथे को चूमा और कहने लगी...
नहीं मेरी सच्चू ऐसा कुछ नहीं हुआ। मधु की शादी किसी और से हो गयी। वो अपने आपको नए परिवार में डुबोने की कोशिशों में खो गयी।
सांची- क्या वो फिर कभी आलेख से नहीं मिली?
मधु- तुम कितने सवाल करती हो? तीन बज गए हैं तुम्हें ट्यूशन जाना है। चलो जाओ मुँह धो।
सांची- नहीं मां प्लीज़ बता दो न।
मधु- ओफ्फो।
हां.... कई साल बाद बड़े शहर के एक मॉल में दोनों मिले थे। मधु को एक बेटी हो चुकी थी।
आलेख पहले से ज़्यादा गंभीर लगने लगा था। उसकी दाढ़ी बढ़ गयी थी।
मधु ने उससे पूछा- तुम अकेले आए हो? मिसेज नहीं आईं?
आलेख ने कहा था उसने शादी नहीं की।
मधु कुछ पलों के लिए उसपर से नज़र नहीं हटा सकी थी।
मधु ने उसे विजिटिंग कार्ड दिया और घर आने को कहा।
फिर आलेख कुछ-कुछ दिनों में उसके घर आने लगा।
मधु जो शादी के बाद हंसना भूल चुकी थी... जिसने अपने आपको सिर्फ एक बड़े अफसर की बीवी बना लिया था... आलेख के घर आने के बाद से वो फिर अपने 17 साल की उम्र में पहुंच गई थी।
वो आलेख की पसंद की चीजें बनाकर उसे खिलाती और आलेख बस मुस्कराकर खा लेता।
पहले की तरह ही आलेख अब भी मधु से ज़्यादा न बोलता मगर मधु की बेटी से उसका रिश्ता गहराता जा रहा था।
वो मधु की बेटी के लिए तोहफे लाता। उसी के साथ खेला करता। उसकी पेंटिंग बनाता। मधु की बेटी को रंगों से खेलना बहुत पसंद था।
सांची- मेरी तरह?
मधु- हां तुम्हारी तरह।
सांची- अगर कमल अंकल का नाम आलेख होता तो ये कहानी आपकी भी हो सकती थी न मां?
वो भी तो मेरे लिए तोहफे लाते हैं, मेरी पेंटिंग बनाते हैं...।
मधु- हां मगर अब तुम तुरंत जाकर मुँह धो। ट्यूशन के लिए देर हो जाएगी। अब कोई सवाल नहीं?
सांची चली जाती है। मधु उठकर अपनी अलमारी के सबसे निचले खाने से एक पुरानी किताब निकालती है। उसमें एक फूल होता है। गुलाब का फूल। मधु उसे देख ही रही होती है तभी सांची आ जाती है।
मधु किताब बन्द कर रख देती है।
सांची कपडे बदलते हुए पूछती है- अच्छा मां क्या मधु अपने हसबैंड से प्यार करती है?
मधु गुस्से से कहती है- अब अगर एक भी सवाल किया तो थप्पड़ खाओगी। चलो जाओ जल्दी सवा तीन हो गया है।
सांची गुस्सा नहीं होती। वो मां को प्यार करती है और कहती है- आज की कहानी बहुत अच्छी थी मां।
थैंक्यू।
दरवाज़े पर पहुंचकर सांची लटककर पूछती है- मां अगर मुझे कोई आलेख मिला तो तुम हमें उसके साथ जाने दोगी न?
मधु ने अपनी हंसी छिपाते हुए कहा-
हां मगर पूरी पढ़ाई ख़तम होने के बाद।
सांची सीढ़ियों पर चिल्लाती हुई भाग जाती है-
उससे पहले हम जाएंगे भी नहीं।
मधु को सांची पर बहुत प्यार आता है।
अचानक उसे याद आता है उसे बाजार जाना है। शाम को उसके पति के दोस्त आने वाले हैं खाने पर।
उसका मन करता है एक बार गुलाब को देखने का पर वो अलमारी बंद कर देती है और चल देती है बाज़ार।

Monday, September 26, 2016

तुम_और_मैं

#तीसरी_कड़ी
मैं- तुम्हें याद है जब हम पहली बार मिले थे तो कितना झगड़े थे।
तुम- हां, मगर वो सब छोड़ो। सुनो शादी के बाद न हम वसंत विहार शिफ्ट हो जाएंगे।
मैं- पहले मुझे तुम बहुत खड़ूस लगे थे।
तुम- अच्छा। वैसे 2-3 साल में डाउनपेमेंट भर का तो पैसा जमा ही हो जाएगा, नहीं?
मैं- हम्म। तुम ऐसे क्यों थे पहले।
तुम- मैं क्या बात कर रहा हूं और तुम क्या बकवास छेड़ रही हो।
मैं- अच्छा बोलो बाबा क्या है। हां इतने दिनों में डाउनपेमेंट जमा हो जाएगा।
तुम- अच्छा सुनो न, इएमआई पर गाड़ी ले लेंगे। मैं तुम्हें ड्रॉप कर दिया करूंगा।
मैं- हम्म।
तुम- तुम अपनी सैलरी से आरडी खोल लेना। बाकी खर्चा मैं देख लूंगा।
मैं- और हर साल हम लोग घूमने जाएंगे।
तुम- नहीं बहुत हो गया घूमना-फिरना। अब सेविंग करेंगे।
मैं- सुनो हम लोग शादी नहीं करते।
तुम- क्या? क्यों? तुमने कहा तुम तैयार हो। इसलिए मैंने सारे प्लान बनाए। अब इसका क्या मतलब है।
मैं- मुझे लगा था शादी के बाद हम दोनों साथ रहेंगे। ज़्यादा करीब आएंगे।
तुम- तो?
मैं- मगर शादी के बाद तुम्हारे करीब आ रहा है मकान, गाड़ी, सेविंग्स। मैं दूर जा रही हूं। हम शादी के बगैर ही ठीक हैं। साथ घूमने तो जा सकते हैं।
तुम- पागल हो गयी हो। शादी के बाद सभी प्लानिंग करते हैं। सेविंग्स से ही तो सिक्योरिटी रहती है।
मैं- हम्म।
तुम- कहां जा रही हो।
मैं- घर।
तुम- अच्छा मैं मकान नहीं खरीदूंगा। हम घर बनाएंगे। गाड़ी नहीं लूंगा। हम साथ चलेंगे। खूब घूमेंगे। बस?
मैं- हम्म। पर मेरी सैलरी आरडी में ही जाएगी। हीहीहीही।
तुम- हाहाहाहा।

तुम_और_मैं

#दूसरी_कड़ी
तुम- आयी क्यों नहीं?
मैं- कब?
तुम- जब आने वाली थीं।
मैं- मैं आयी थी, तुम मिले नहीं।
तुम- पर मैं तो वहीं था।
मैं- मुझे दिखे नहीं, मैंने आवाज़ भी लगाई थी।
तुम- हां, सुना था मैंने... जवाब देने का मन नहीं हुआ।
मैं- फिर क्यों पूछ रहे हो कि आयी क्यों नहीं?
तुम- मुझे लगा शायद पूछने से तुम दोबारा आ जाओ।
मैं- क्या तुम चाहते हो कि मैं आऊं?
तुम- नहीं, ज़रूरी नहीं है।
मैं- तुम चाहते क्या हो?
तुम- कुछ भी नहीं.. तुम क्या चाहती हो?
मैं- कि तुम कुछ चाह लो... और जो भी चाह लो, उसे पा लो।

तुम_और_मैं

एक सीरीज शुरू कर रहे हैं... कोई विषय नहीं सिर्फ कुछ संवाद हैं...
हो सके तो सुधार के लिए अपनी राय दें... सीरीज लिखने का आइडिया फेसबुक से ही आया।
तुम और मैं नाम है सीरीज का।
तुम और मैं की कोई उम्र नहीं, जेंडर नहीं, गांव नहीं, देश नहीं, भाषा नहीं, सम्बन्ध नहीं.... ये कहीं के भी हो सकते हैं। इनके बीच का रिश्ता कुछ भी हो सकता है। ये बात करते हैं, खूब बात करते हैं।
#पहली_कड़ी
तुम- कब आयी?
मैं- मैं तो यहीं थीं।
तुम-सोच रहा था तुम होती तो कैसा होता
मैं- पर मैं तो यहीं थी। तुमने मुझे पहले नहीं देखा?
तुम- नहीं.. मैं तो बस यही सोच रहा था कि तुम होती तो कैसा होता।
मैं- तुम्हारा ध्यान कहीं और था शायद।
तुम- हां मैं हमेशा यही सोचता हूँ कि तुम होती तो कैसा होता।
मैं- अगर तुम देख पाते तो जान पाते कि मैं होती तो कैसा होता।
तुम- हां... मैं जल्दी ही जान लूंगा कि तुम होती तो कैसा होता।
मैं- मैं अब जा रही हूँ...
मैं-सुना तुमने? मैं जा रही हूँ...। सुनते क्यों नहीं?
तुम- मैं कुछ सोच रहा था।
मैं- अब मुझे मत बताना कि तुम क्या सोच रहे थे...
#तुम_और_मैं

Friday, August 12, 2016

उदास हैं क्या...?

यार सैलरी इतनी कम है कि महीने का खर्च भी पूरा नहीं पड़ता, सेविंग तो दूर की बात है।
रोज़ ऑफिस जाते समय घंटों जाम में फंसते हैं, दिमाग का दही हो जाता है।
घर में बैठे-बैठे बोर हो चुके हैं , ज़िन्दगी में कोई चार्म नहीं बचा।
रोज़ का वही काम , खाना बनाओ-खाओ, कपड़े बर्तन... बस। ये भी कोई ज़िन्दगी है।
ये साली ज़िन्दगी तो घर का दाल-चावल पूरा करने में ही बीत जाएगी।
और वगैरह-वगैरह।

ज़िन्दगी की ऐसी ही शिकायतें सुनने को मिलती है आसपास। कभी सुना है किसी को कहते कि मैं बहुत खुश हूं अपनी ज़िन्दगी में या मेरे पास सब कुछ है।
किसी के पास सब कुछ हो भी नहीं सकता। अगर हो जाए तो ज़िन्दगी पूरी नहीं हो जाएगी। अधूरेपन को पूरा करने की तलाश ही तो है ज़िन्दगी।
एक दादी मिली थी कल ऑफिस जाते समय ऑटो में। उनके हाथों में खिलौने थे। ऐसे खिलौने जो शायद वो चलाना भी नहीं जानती होंगी। ले जा रही होंगी शायद अपने पोते-पोती या नातियों के लिए। बहुत पैसे नहीं थे उनके पास। उस उम्र की थीं जिस उम्र में अकेले नहीं निकलना चाहिए उन्हें। कैसे पसंद किए होंगे उन्होंने वो खिलौने। जब बच्चे खेलेंगे तो कितनी खुश होंगी वो। क्या ये ख़ुशी कम है?
हम हमेशा सोचते हैं हमारे पास क्या नहीं है... कभी नहीं सोचते क्या कुछ है...
पता है क्या है हमारे पास:
हमारे पास दो हाथ हैं, दो पैर हैं जो टूटे नहीं हैं।
हमारे पास दो आंखें, एक नाक, दो कान हैं जो अपना काम सही तरह से करते हैं।
हमारे पास दो किडनी है जो ख़राब नहीं है, फेफड़ा है जिसमें इन्फेक्शन नहीं है।
एक दिल है जिसमें कोई छेद नहीं है।
........
ये सब तब तक बहुत नॉर्मल लगता है जब तक इनमें कोई ख़राबी नहीं आती।
एक बार डॉक्टर के यहां चक्कर लगाना पड़ जाए तो ज़िन्दगी की बाकी कमियां याद नहीं रहतीं।
कुछ लोग इन सब के बाद भी खुश रहने की कोशिश करते हैं। मिलिए कभी अनाथाश्रम में रहने वाले बच्चों से जिनके पास न अपना घर है न रिश्ते। देखिए कभी उन्हें जो दो कदम बिना सहारे चल नहीं सकते। अपनी ज़िन्दगी रोशन लगेगी आपको।
कोशिश करिए कि खुश रहने के बहाने तलाशे जाएं न कि ज़िन्दगी की तकलीफों को याद कर करके फ्रस्टेट रहा जाए। आपके खुश रहने से आपके आसपास एक पॉजिटिव एनर्जी बनती है जिससे दूसरे लोग भी खुश रहते हैं। जब आपकी वजह से कोई और हंसता है तो बैंक अकाउंट में तो कोई तब्दीली नहीं आती हां सुकून ज़रूर मिलता है।
और खुश होना है?
किसी गरीब को 10 रुपये का भुट्टा दिलाइए और उसे खाते देखिए।
एक बच्चे को दो रुपये की टॉफी दिलाइए फिर उसका मुस्कराना देखिए।
किसी बुज़ुर्ग का सामान उठाकर उसके साथ 10-20 कदम चलकर देखिये।
ऑटो में गुमसुम बैठी औरत से बाहर पढ़ने-कमाई करने गए उसके बच्चों के बारे में पूछकर कर उसकी गर्व भरी बातें सुनिए।
किसी ख़ास के लिए कुछ ख़ास करिए और उसकी हंसी देखिए।

सबसे बड़ी बात इन सब कामों के लिए आपकी सैलरी का ज़्यादा होना ज़रूरी नहीं। लखपति होना ज़रूरी नहीं। ताकतवर, रौबदार होना भी ज़रूरी नहीं।

खुश रहना बहुत आसान काम है। शर्त सिर्फ इतनी है कि आप खुद खुश रहना चाहते हों। यकीन मानिए ज़िन्दगी बहुत छोटी है। कब, कौन, कहां, कैसे... साथ छोड़ जाए, नहीं पता। उदास रहने से आप न सिर्फ खुद को बल्कि अपने आसपास के लोगों को भी उदासी देते हैं सौगात में। मुझे नहीं लगता आप ऐसा चाहते होंगे।
पुराना गाना है... इस दुनिया में जीना है तो सुन लो मेरी बात गम छोड़के मनाओ रंग-रेली...।
😊👍💐
खूब मुस्कराइए... दूसरों को मुस्कराहट दीजिये...। 

Tuesday, May 24, 2016

हंसते-हंसते रोना सीखो...

स्वाभाविक है रोना... गले का रुंधना, दिल की तकलीफ, मन की कसक... सब कुछ स्वाभाविक है। मगर क्या सचमुच सभी के लिए इतना ही स्वाभाविक है।
रोने को कमज़ोरी से जोड़ा गया है, कमज़ोरी को औरतों से। औरतों को रोने की उपाधि दी गई है...। मर्द रोए तो उसे भी 'औरत' कहा जाता है।
कई मज़ाक सुने हैं इस पर...
औरतों की पलकों पर बाल्टी रखी होती है जब चाहती हैं थोड़ा सी लुढ़का कर काम बना लेती हैं।
अरे उनसे कुछ मत कहना वरना टेसुए बहा देंगी।
काम ही क्या है इनके पास, बस रो दें और इनकी बात मान ली जाएगी।
बस यही अच्छा नहीं लगता... हर बात पर रोना शुरू।
यार लड़कियों की तरह रोना मत शुरू कर देना।
रोना औरतों का काम है हम मर्दों का नहीं (फ़िल्म का डायलॉग)
और ऐसी न जाने कितनी बातें, ताने। हम हंसने, गुनगुनाने, मुस्कराने, उदास होने, प्यार करने, गुस्सा करने, चिढ़ने, जलने या किसी भी और एहसास पर इतना रिएक्ट नहीं करते। (वैसे महिलाओं के हर रिएक्शन पर हज़ारों टिप्पणियाँ हैं।)
इस पर कई शोध भी हुए हैं। माना जाता हैं उदास और दुःखी होने पर रो देने वाले मर्द बाकी मर्दों से ज़्यादा अच्छे इंसान होते हैं। ये भी कहा गया है कि रोना हमारी मानसिक सेहत के लिए अच्छा है और ज़रूरी भी।
हालांकि रोने के समय, जगह और साथ का भी अपना महत्व है। किसी अपने के सामने रोना और अजनबी से छिपकर रोना अलग-अलग एहसास देते हैं।

मुस्कराहट को किसी भी मर्ज़ के लिए सबसे अच्छी दवा और ख़ूबसूरती बढ़ाने के लिए सबसे बेहतर मेकअप माना गया है।
इसके साथ ये भी सच कि है दुःखी और उदास होने पर रो लेना दवा जैसा है और मन की ख़ूबसूरती के लिए उसका साफ़ होना ज़रूरी है जो रोने से हो सकता है।
इस पोस्ट का मतलब ये बिलकुल नहीं कि रोना ही हर समस्या का हल है। मगर रोना बुरा नहीं है और कभी कभी ज़रूरी है।

याद कीजिए पिछली बार कब रोए थे आप (खासकर पुरुष)। अगर ये वक़्त छह महीने से ज़्यादा हो चुका है तो...
खैर रोते हुए चेहरों को दुनिया या तो देखना नहीं चाहती या उस पर हंसती है। हंसते हुए चेहरों की मांग ज़्यादा है...

इसलिए मुस्कराते रहिए।