Aagaaz.... nayi kalam se...

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Monday, January 16, 2012

चुनाव: ज़िन्दगी या पार्टी का...


लगभग चार महीने पहले शीलदास के इकलौते जवान बेटे की मौत हो गयी, पटरंगा वाले कालीचरण के खेतों में पिछली गर्मी में आग लगी थी, कविता तो पिछले आठ महीनों से खुद को समेटने में लगी है जबसे उसका पति उसे इस दुनिया में अकेला, बिखरता छोड़ गया.... नहीं ये किसी एक परिवार की कहानी नही है, ये उत्तर प्रदेश के अलग अलग गाँव के अलग अलग परिवारों की दशा है जहाँ जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले है। खैर सभी पार्टियाँ कुर्सी की जद्दोजहद में बहुत व्यस्त है। किसी को अपनी मूर्तियाँ ढ़कने का गुस्सा है तो कोई अपनी पार्टी में शामिल हुए दागदार लोगों को सही साबित करने में लगा है. चुनाव आयोग के तय किये निर्देशों को कैसे तोड़ा मरोड़ा जाए ये भी एक बड़ा काम है. अपने किये कर्मों को बोरी में बंद करके दूसरों के कामों की गठरी की गाठ खोलना भी कोई आसान काम नही. अब इतने बड़े कामों को करने वालों को शीलदास, कालीचरण और कविता के लिए समय कहाँ है... और वो समय निकालकर करे भी तो क्या॥ ये सिर्फ इन तीनों का रोना होता तो कोई जाकर उनके यहाँ खाना खा आता और कोई उन्हें एक लाख का मुआवज़ा भी दे देता लेकिन ये तो कई गाँव के कई घरों की कहानी है. करे भी तो करे क्या?एक सवाल है जो बार बार मन में आ रहा है कि कालीचरण के भूखे बच्चों के पेट की आग क्या नयी सरकार बुझा पायेगी? शीलदास किस मन से जायेगा किसी पार्टी का चुनाव करने? और कविता उसकी तो सारी उम्र खडी है सामने॥ कई चुनाव करने है उसे खुद के लिए...
इन जैसी जिंदगियों के लिए क्या चुनना ज़रूरी है ये भी एक सवाल है.. अगर ये भी उन आम आदमी में आते है जो लोकतान्त्रिक समाज में खुद अपनी सरकार चुनते है तो किस मनोदशा से ये चुनाव में भाग लेंगे. लोकतंत्र के लिए चुनाव ज़रूरी है मगर जब इनका ख्याल आता है तो सारा जोश ठंडा हो जाता है. खैर हमें तो चुनना ही होगा किसी 'काने राजा' को...

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