Aagaaz.... nayi kalam se...

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Kya likhun...???

Monday, March 30, 2015

अनजाना सफ़र...

मंज़िल साफ़ न हो तो रास्ते ज़्यादा ख़ूबसूरत हो जाते हैं...। मेरे अनजाने सफ़र ने यही सिखाया। हर रोज़ ऑफिस जाना और कभी स्टोरी के लिए वेन्यू तलाशना...। हर बार मंज़िल साफ़... उसी बोर्ड को तलाशती नज़र...।
मगर ये सफ़र कुछ अलग था... घर से निकलते वक़्त नहीं पता था कहां जाना है। चारबाग के लिए ऑटो में बैठकर सोचने की कोशिश की कि कहां जाया जाए पर दिमाग ब्लैंक।
चारबाग में ऑटो से उतरते ही 31 नम्बर बस दिखी...। लगा दी दौड़। उस वक़्त भी नहीं पता था जाना कहां है। बस उसी रास्ते पर बढ़ रही थी जिधर रोज़ जाना होता है पर ये क्या... आज कई नई होर्डिंग दिखी। कल तो नहीं थी... या थी और मुझे दिखी नहीं....। हवा तेज़ी से मेरे चेहरे को ठंडा कर रही थी। बस्स्स यही चाहिए था...। हां सच में हवा से चेहरा ही ठंडा करना था। ये क्या फुहारें भी पड़ने लगी...। बहुत धीमी। वो सड़क पार  सब्जी सजाकर बैठी औरत हाथों की उंगलियां मोड़ते हुए क्या सोच रही होगी? शायद फुहारें उसे डरा रही होंगी। अगर तेज़ हो गईं तो ये 10 किलो सब्जी कहाँ सजाएगी।
हां टिकट टिकट...
कहां जाना है? मेरे बगल वाली लड़की से कंडक्टर ने पुछा।
एमएसटी है।
इतनी देर में मैं समझ चुकी थी कि बस का लास्ट स्टॉपेज आईआईएम है।
मैंने बोला, आईआईएम।
पता नहीं क्यों कुछ अजीब लगा बोलने में। कहीं वो पूछ बैठे आईआईएम क्यों जाना है तो?
खैर आज हुसैनगंज चौराहा कुछ नया सा नहीं लग रहा...? और ये स्कूल रिक्शा चलाने वाले भईया जी...झुण्ड बनाकर क्या बतिया रहे हैं? शायद ये कि दो दिन बाद पहली तारीख़ आने वाली है। बर्लिंगटन आज ज़्यादा साफ़ दिख रहा है। विधानभवन से गुज़रते समय दिल्ली की वो सैर याद आ गई जब करुणा के साथ दिन भर का पास बनवाया था और हर बस स्टॉप पर हरी वाली बस का इंतज़ार किया था। आज बस इलाहबाद बैंक से मुड़ी नहीं... चलो रोज़ वाली सड़क ख़त्म हुई। मेरे बगल वाली सीट पर बार बार लड़की बदल जाती है... पता भी नहीं चलता। इस बार नेशनल कॉलेज की स्टूडेंट बैठी है। सामने किसी कॉलेज की लड़कियों का ग्रुप...। सब म्यूजिक पर बात कर रही है.... शकीरा से लेकर ए आर रहमान और अब पंजाबी गाने पर पहुंच गईं। दूसरे स्टॉप पर मेरे बगल बैठी स्टूडेंट की दोस्त भी चढ़ी। दो की सीट पर तीन एडजस्ट हो गए। फोन पर वो किसी को जगाने की कोशिश कर रही थी। 'कॉलेज जाना है... या आज भी गोला... चलो उठो'। अरे बस अलीगंज पहुंच गई। अगर इधर ही आना था तो बस क्यों पकड़ी...। अमीनाबाद से आते पर मुझे तो चेहरा ठंडा करना था न... बताया तो। अच्छा ये है आंचलिक विज्ञान नगरी...। यहां आना है। इंजीनियरिंग कॉलेज चौराहा आ गया। बस लगभग खाली हो चुकी है। हां याद आया... नुक्कड़ नाटक के लिए इधर से ही गए थे। सामने बोर्ड लगा है सीतापुर... दिल्ली... कहां जाना है? बस एकदम खाली हो गई। ड्राइवर, कंडक्टर और मैं। अनजाना सफ़र.... कुछ डर लगना तो वाज़िब है क्योंकि डर सबको लगता है, गला सबका सूखता है। कंडक्टर ने फिर पूछा जाना कहां है?
मैंने कहा, आईआईएम।
आईआईएम में कहां?
बस आईआईएम।
एक आश्रम है... वहां तो नहीं जाना?
हां हां वहीं जाना है। आश्रम जाना है।
ठीक है... यहीं उतर जाइए...। आगे गेट है... गेट से बाएं।
...........................
 पूरे सफ़र में यहां तक का सफ़र ही खास था....। पता है क्यों?
क्योंकि यहां तक का सफ़र ही अनजाना था...। अब तो लौटना होगा।
आईआईएम के गेट के अंदर जाते ही जेएनयू की याद आई। सामने दिखती लम्बी और सूनी सड़क। अगल-बगल पेड़। बीच-बीच में गुज़रती बाइक। मेरे चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी... अपने आप।
 आश्रम का गेट दिखा पर सामने दिख रही कहीं न ख़त्म होने वाली सड़क ज़्यादा रोमांचित कर रही थी। मेरे करीबी जानते हैं कि मैं पैदल ज़्यादा नहीं चलती... पर यहां दिल यही कर रहा था कि ये सड़क कभी ख़त्म न हो।
आगे लिखा था... प्रबंध नगर आपका स्वागत करता है।
आईआईएम आ गया। बड़ा सा गेट... अंदर जाने को मिलेगा... शायद नहीं। हमारे आईआईएमसी में तो कोई भी आ जाता है। सोचा यहीं से लौट चले पर सामने मोड़ के बाद न दिखने वाली सड़क ने अपनी तरफ खीँच लिया। आगे एक खुशबू थी... बिलकुल रुदौली जैसी। गोबर के कण्डे की... कच्चे दूध की... भूसे की.... खेतों की...। वाह यही तो है मेरे सपनों की जगह। हां चेहरा ठंडा करने के अलावा यही खुशबू ढूंढने तो निकले थे। मेरे पैरों में कोई थकान नहीं थी। ट्रैक्टर की फोटो खींचते समय कई लोग घूर रहे थे... पर मुझे घूरने पर बुरा नहीं लग रहा था। गांव के लोगों की आँखों में गन्दगी नहीं जिज्ञासा दिखती है। कौन है ये लड़की। अकेले यहां कैसे। फोटो क्यों खीँच रही है। ढेरों सवाल।
कुछ दूर और चलने के बाद मुझे लगा अब लौट जाना चाहिए क्योंकि मुझे आसानी से रास्ते याद नहीं होते...। लौटने के लिए मुड़ते वक़्त मुझे सफ़र के ख़त्म होने की कसक थी। क्योंकि सफ़र तो अभी बचा था पर अनजाना सफ़र ख़त्म हो रहा था। लौटकर मैंने आईआईएम देखा। अंदर जाने को नहीं मिला। वहां से आश्रम। आश्रम में झूला। रसोइये से बातचीत। नंगे पैर छलांग लगाती सोनम से थोड़ी गप्प। गायत्री परिवार के मंदिर में माइक पर चिल्लाते महानुभाव और फिर बैटरी वाली गाड़ी से वापसी। आगे का सफ़र... सफ़र था। अनजाना सफ़र नहीं।
लखनऊ की सड़कों पर मैंने पटना, जयपुर और अमृत सर की सड़कों को पाया। मेरे सारे सफ़र अनजाने सफ़र से जुड़ गए।
सफ़र में अकेला होना और अकेले सफ़र करना अलग बातें हैं। अकेले सफ़र करने में जितनी नई चीज़ें आप जान सकते हैं किसी के साथ होने पर नहीं। मैंने अपने सफ़र में बहुत कुछ नया जाना। खबरों में पढ़े जाने वाले कई स्कूलों के नाम... होर्डिंग में देखे।
बात वहीं ख़त्म होती है कि मंज़िल साफ़ न हो तो रास्ते ज़्यादा ख़ूबसूरत हो जाते हैं।
बाकी चलना ज़रूरी है। चलते रहिए।