Aagaaz.... nayi kalam se...

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Kya likhun...???

Tuesday, November 15, 2011

आज़ादी आधी रात को


आख़िरकार हमने ये किताब पढ़ ही डाली.. पिछले करीबन 6-7 महीनों से हम इस किताब को अपने पास रखकर इसे पढ़ने का असफल प्रयास कर रहें थे... दिल्ली आने के बाद अचानक इसे पढ़ने की तलब बढ़ गयी... फिर तो जैसे जैसे पढ़ते गये.. और पढ़ने का जूनून सा लगने लगा... रात में सोने के समय भी लगता था कि एक पन्ना और.... इसकी एक वजह यह है कि हमें हमेशा से देश की आज़ादी से जुड़ी घटनाएं आकर्षित करती रही है... चाहे वो कोई देशभक्ति की फिल्म रही हो या कुछ पंक्तियाँ हो... जब शुरुआत में पढ़ना शुरू किया तो उसमें ब्रिटेन और वहां से जुड़ी कुछ बातें लिखी थी... शायद इसीलिए मन ज्यादा जुड़ाव महसूस नहीं कर पा रहा था... लेकिन आगे पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि वो पृष्ठभूमि देना ज़रूरी था.... और आगे पढ़ने के बाद हमने फिर से पिछले पन्नों को पलटा और ध्यान से पढ़ा... किताब के लेखकों डोमिनिक लापियर और लैरी कॉलिन्स के साथ साथ हम तेजपाल सिंह धामा के बहुत शुक्रगुज़ार है जिन्होंने इसका हिंदी में सम्पादन किया क्यूंकि अगर ये अंग्रजी में होती और हम पढ़ते भी तो शायद आधे से भी कम आनंद उठा पाते.. खैर किताब बड़े ही रोचक अंदाज़ में लिखी गयी है ... चाहे वो.. ब्रिटेन का भारत को आज़ादी देने का फैसला हो या हमारे देश के राजा- महाराजाओं के काम, गाँधी, जिन्ना, नेहरु, पटेल, वीर सावरकर, माउंटबेटन, गोडसे आदि के किरदार हो या उस समय की राजनीति, सभी ने हमें बांधे रखा... खासकर विभाजन के समय
होने वाले भयानक रक्तपात को पढ़ते समय मेरे रोंगटे खड़े हो गये... हम तो बचपन से कहानियों में, फिल्मों में और भी कई जगहों से उस समय के हालात को सुनते आ रहें है लेकिन अगर कोई इन सब से बिलकुल अनजान होकर इसे पढ़े तो वाकई उसके लिए ये दिल दहला देने वाला लेख बन जायेगा...
विभाजन की वो पीड़ा हम में से कोई समझ भी नहीं सकता क्यूंकि वो एक भयानक स्वपन से भी भयानक था... इसके बाद गांधी जी की हत्या का पूरा विवरण भी किताब से नज़रे हटने नहीं देता... इन सब के बाद ये बताना ज़रूरी है कि इस किताब को पढ़कर मेरे बहुत सारे भ्रम टूट गए.. सबसे खास बात ये कि जब ये किताब अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंची तो इस ख़ुशी के साथ कि हमने इसे पढ़ लिया है... एक अजीब सी बैचेनी हुई.. लगा कि हम एक दुनिया से बाहर आ रहें है... उसे और देखना चाहते है, वहां के लोगों से और जुड़ना चाहते है... लेकिन ऐसा हुआ नहीं... मेरी माने तो इस किताब का अगर पार्ट २ आ जाए तो हम उसे भी इतनी ही रोचकता से पढेंगें.... चलते- चलते मेरी अपने दोस्तों से यही गुज़ारिश है कि एक मर्तबा इसे ज़रूर पढ़ें... हमें पूरा विश्वास है कि ये किताब आपको भी उतनी ही अपनी लगेगी जितनी हमें लगी....
शुक्रिया...
-शुभी चंचल

Sunday, November 13, 2011

यात्रा और यात्री...

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता
चल रहा आकाश भी है
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता

पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है

एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर टिक पाता

शक्तियाँ गति की तुझे
सब ओर से घेरे हुए है
स्थान से अपने तुझे
टलना पड़ेगा ही, मुसाफिर!

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था
पत्थरों से पाँव के
छाले छिलाना ही पड़ा था

घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा

थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था

पग परीक्षा, पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

शूल कुछ ऐसे, पगो में
चेतना की स्फूर्ति भरते
तेज़ चलने को विवश
करते, हमेशा जबकि गड़ते

शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए

किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने
के लिए मजबूर करते

और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

सूर्य ने हँसना भुलाया,
चंद्रमा ने मुस्कुराना
और भूली यामिनी भी
तारिकाओं को जगाना

एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेकिन

मत बना इसको पथिक तू
बैठ जाने का बहाना

एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है,
देखने को मग तुझे
जलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है

यह मनुज की वीरता है
या कि उसकी बेहयाई

साथ ही आशा सुखों का
स्वप्न लेकर झूलती है

सत्य सुधियाँ, झूठ शायद
स्वप्न, पर चलना अगर है
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़ेगा ही, मुसाफिर

साँस चलती है तुझे
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर!

- हरिवंश राय बच्चन