Aagaaz.... nayi kalam se...

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Tuesday, March 6, 2012

इम्तियाज़ की नायिका...

जब वी मेट.....
जब वी मेट की शुरूआत एक डूब चुके कारोबार के मालिक की बिखरी हुई जिंदगी से होती है। शुरूआत में ही इम्तियाज़ अली समाज की एक रूढि़वादी सोच की छोटी सी झलक पेश कर देते है। आदित्य (शाहिद कपूर) अपनी मां से बेइंतहा नफरत करता है। इस नफरत की वजह है उसकी मां का दूसरे पुरुष से संबंध। हमारे समाज की ये सोच कि एक शादी शुरू औरत जिसका जवान बेटा है वो कैसे किसी और पुरुष से प्रेम कर सकती है? यही सवाल आदित्य को अपनी मां से नफरत करवाता है। इसके बाद फिल्म की नायिका आती है जो आज तक की तथाकथित सुसंस्कृत, बेचारी और कोमल हृदया लड़की से बिल्कुल उलट नज़र आती है। गीत, पंजाब की एक लड़की जो मुंबई में पढ़ाई खत्म करने के बाद अकेली घर वापस जा रही है। इतना ही नहीं वो ट्रेन छूटने से ठीक पहले स्टेशन पहंुचती है और लगभग दौड़ती हुई ट्रेन में चढ़ती है। बिना किसी हिचकिचाहट, डर और असहजता के वो अजनबियों से बात करती है। हमारे समाज में जहां आज भी लड़कियों का अकेले सफर करना, अजनबियों से बात करना, ज्यादा बोलना, मजाक करना सभ्यता के दायरे से बाहर है, वहां गीत एक तेज तर्रार, बात-बात पर ठहाके लगाने वाली, बेहद सकारात्मक और दूसरों की मदद करने वाली लड़की है। यहां तक तो ठीक है मगर इसके बाद इम्तियाज़ अली की कल्पना सामने आने लगती है। आदित्य के एक स्टेशन पर उतर जाने पर गीत भी अपना सामान छोड़कर उसके पीछे ट्रेन से उतर जाती है। अब हां सवाल खड़ा होता है कि क्या हमारे समाज में कोई भी लड़की ऐसा कर सकती है? खैर उसके बाद दोनों की ट्रेन छूट जाती है और गीत को गुस्सा आता है और वो अपना परिचय खुद देती है- ‘छोड़ने वाली नहीं हूं, कोई आउट मत रखना, सिक्खनी हूं मैं भंटिडा की‘। ये संवाद नायिका के आत्मविश्वास को पूरी तरह दर्शकों के सामने लाने के लिए काफी था। किसी तरह दूसरे स्टेशन पर पहुंचना और फिर वहां पानी बेचने वाले से फालतू की बहस से फिर एक बार ट्रेन का छूट जाना, दुकानदार के छेड़ने पर उसे सबक दिखाना, इतना सब कुछ होने के बाद भी डर का नामोनिशान नहीं। इसके बाद स्टेशन मास्टर की मुफ्त की सलाह पर उसे मुंहतोड़ जवाब देना और आखिरकार एक आदमी से बचते हुए फिर नायक के पास पहुंचना। रात में एक होटल पर पहुंचकर, होटल में मैनेजर के रूप में समाज के मज़ाक को न समझते हुए एक बदनाम होटल में रुककर नायक की समस्याओं को सुलझाती है और लगभग पूरी तरह से टूट चुके नायक को आखिरकार मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है। कहीं न कहीं एक संदेह दर्शाती है मगर नायक पर विष्वास कर लेती है। बातों ही बातों में एक डायलॉग- मैं अपनी फेवरिट हूं, आम लड़कियों के लिए बहुत कुछ कह जाता है। बीच-बीच में हौसला बढ़ाने वाली बातें करती है- हमें वहीं मिलता है जो हम एक्चुअली में चाहते हैं। जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने वाली लड़की नज़र आती है। जब उसे आदित्य की असली पहचान मिलती है तब वो उसे और समझाती है। उसकी मां भी एक औरत है न कि सिर्फ एक बीवी और उसकी मां है। आखिरकार नायक भी इस बात को समझता है। उसके बाद उसका घर पहुंचना, अपने रिश्ते की बात पर नायक की राय लेना, उसके साथ भागना इन सब में नायिका के चरित्र का बेबाकीपन साफ नज़र आता है।
यहां तक इम्तियाज़ अली ने एक अलग तरह की नायिका पेश की है मगर इसके बाद गीत बदल जाती है। जब उसका प्रेमी उसे छोड़ देता है तो गीत भी उन तमाम आम लड़की जैसी बिखर जाती है जैसे हमें और फिल्मों में देखने को मिलती है। वो अपना खुद का चरित्र भूल जाती है और एक बार फिर इस नायिका को नायक ही संभालने आ जाता है। अंततः गीत फिर अपने चरित्र में आती है।
इस फिल्म में इम्तियाज़ अली ने बहुत हद तक नारी का एक अलग चेहरा पेश किया है जो समाज को प्रभावित कर सकता है मगर कहीं न कहीं समाज से प्रभावित भी नज़र आता है।

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