वर्तिका नंदा मैम की कविताओं से प्रेरित और उन बेटियों, बहनों और पत्नियों को समर्पित जिनका जीवन पुरुषों के बनाये गए नियम कायदों पर चलता है ....
जोर से हँस लूं तो क्या बुरा है,
मैं भी मुस्कुरा लूं तो क्या बुरा है,
ज़िन्दगी में गम-आंसुओं की कमी तो नहीं,
एक दिन मगर सुस्ता लूं तो क्या बुरा है ....
एक आस कर लूं पूरी,
तेज़ आवाज़ में बोल दूं तो,
एक दिन मेज पर चढ़कर गुनगुना लूं तो क्या बुरा है ...
ऊंची मंजिल पर चढ़कर देखूं शहर सारा,
झरोखे से देखूं सपना कोई प्यारा,
घर-बाहर के काम में बाबा को राय दूं तो,
एक दिन अपनी भी कह दूं तो क्या बुरा है ...
साइकिल चलाऊं खेतों में शबनम और पूजा के साथ,
न बनाऊं एक दिन चोखा-रोटी और दाल-भात,
मैं भी देर से घर आऊं तो,
एक दिन गलियां भूल जाऊं तो क्या बुरा है ...
देखूं अफसर बनने का सपना,
साथ दे जो कोई अपना,
मैं भी कोई रौब दिखाऊँ तो,
एक दिन मैं भी जी जाऊं तो क्या बुरा है ...
---शुभी चंचल
हालात ही कुछ ऐसे हैं. . . सच्चाई बयान करती यह कविता .. बहुत खुब :)
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