Aagaaz.... nayi kalam se...

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Kya likhun...???

Thursday, December 1, 2011

सिलसिले...

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते-जाते

शिकवा-ए-जुल्मते-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते

कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते

जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी
पा बजोलां ही सहीं नाचते-गाते जाते

उसकी वो जाने, उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ से तो निभाते जाते

-अहमद फ़राज़...

2 comments:

  1. padti rho fraz sahab ko,maine to pad rkha hai,par kabhi likh nhi paya kosis karta hu kuch likh du mai bhi

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  2. फराज़ साहब का जवाब नही...
    रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
    आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ.
    किस-किस को बताएंगे जुदाई का सबब
    तू अगर मुझसे खफ़ा है तो ज़माने के लिए आ.
    -फ़राज़

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