बुलाता है पास मेरे घोसले के,
कहता है दाना खाने को,
और मोड़ लेने पंखों को,
कुछ देर सो लेने को,
ख्वाब संजोने को,
जो कल करने है पूरे,
मेरी आँखें भी तलाशती है मेरे आशियानें को,
मगर यूँ ही, न जाने क्या,
रोकता है मुझे, मेरे पंखों को,
मेरे साथ उड़ने वाले परिंदे शायद,
खुला नीला आसमां शायद,
बाहें फैलाकर सांसों का समाना शायद,
जो डरने नही देता मुझे,
न ढलते सूरज से, न बढ़ते अँधेरे से,
फिर भी ढलता हुआ सूरज देता है आवाज़ मुझे,
बुलाता है पास मेरे घोसले के...
-शुभी चंचल
Achchi Kavita Hai Badhai
ReplyDeleteTejpal Singh Dhama
thank u sir.. :-)
ReplyDelete